अनूठी रही है उत्तराखंड की काष्ठकला सिर्फ इतिहास के पन्नों तक?

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अनूठी रही है उत्तराखंड की काष्ठकला सिर्फ इतिहास के पन्नों तक?

  डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड ही क्या, कश्मीर, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमाचल से लेकर पूर्वोत्तर, तमिलनाडुकेरल और कई दूसरे राज्यों में काष्ठकला के दर्शन हमेशा से होते आए हैं। स्थानीय जलवायु ने हर जगह इनके चरित्र को ढाला है। मोटिफ, डिजाइन, विषयवस्तु, शैली जैसी खूबियों कोलोकलतत्वों ने निर्देशित किया है। अब इस कलात्मक प्रभाव के पीछे हमें उत्तराखंड में बीती सदियों में हुएमाइग्रेशनके साक्षात दर्शन हों तो कोई आश्चर्य नहीं! सोलहवींसत्रहवीं सदी में मुगलों के आतंक के चलते मध्य भारत के लोगों को उत्तराखंड किसी पनाहगाह से कम नहीं लगा था। आज भी उत्तराखंड के जोशी खुद को गुजरात से, पंत अपने पुरखों को महाराष्ट्र से और पांडेय अपनी जड़ों को उत्तर प्रदेश से जोड़ते हैं। इस तरह उत्तराखंड के स्थानीय रसों में गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर के मैदानी इलाकों के रसों ने मिलकर रसानुभूति को बढ़ाया। इतिहासकारों का मत है कि उस दौर के शिल्पकारों का कश्मीर, गांधार, उत्तर भारत एवं मध्य भारत तक से संपर्क था, और +नकी कला में ये संपर्क खूब अभिव्यक्ति पाते रहे।कुछ इतिहासकार उत्तराखंड के दरवाज़ोंझरोखों में नेपाल के भक्तपुर की नेवाड़ी परंपरा का प्रभाव देखते हैं। सत्रहवीं सदी में गोरखा हमले और उसके बाद यहां कायम हुए गोरखा शासन ने उत्तराखंड की संस्कृति को प्रभावित करना शुरू किया। इसी तरह, तिब्बत के साथ कारोबारी रिश्तों, माना जैसे दर्रों से गुजरने वाले व्यापारियों के कारवां, गढ़वालकुमाऊं में हुए माइग्रेशन ने भी इस पहाड़ी समाज में नए रंग भरे। दरवाज़ोंखिड़कियों के पल्लों पर घुड़सवार, पक्षी, पेड़पौधे, फूलपत्तियां, स्वास्तिक, देवीदेवता और यहां तक कि ज्यॉमितीय पैटर्न गढ़े जाते रहे हैं।उत्तराखंड के गांवों से गुजरते हुए जब लिखाई कला से सजे द्वारखिड़कियों के दर्शन होते हैं तो ऐसा लगता है कि जैसे पूरी बस्ती को ही किसी कारीगर के हाथों का स्पर्श मिल गया हो। जो जितना समृद्ध घर होता है, उसके द्वारचौखटों की कारीगरी भी उतनी ही समृद्ध दिखती है। यानी, लिखाई कला का वो दौर भी था जब यह मकान मालिक की सामाजिकआर्थिक हैसियत का पुरजोर ऐलान होती थी। लेकिन बीते दशकों के बदलावों ने इस कला को लगभग लील लिया है। 19वीं सदी में जो काष्ठकला अपने चरम पर थी, उसका अवसान अब करीब है। उस दौर में कारीगर को समाज में सम्मान प्राप्त था। काष्ठशिल्प पर बात करने वाले प्राचीन ग्रंथों बृहत संहिता और शिल्प शास्त्र में पेड़ों को काटने की रीति, उन्हें सुखाने और उनसे शिल्प गढ़ने के विधिविधान आज भी चमत्कृत करते हैं। ये ग्रंथ काठ से खेलने वाले शिल्पियों की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका स्वीकार करते हैं। त्तराखंड ही क्या, कश्मीर, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमाचल से लेकर पूर्वोत्तर, तमिलनाडुकेरल और कई दूसरे राज्यों में काष्ठकला के दर्शन हमेशा से होते आए हैं। स्थानीय जलवायु ने हर जगह इनके चरित्र को ढाला है। मोटिफ, डिजाइन, विषयवस्तु, शैली जैसी खूबियों कोलोकलतत्वों ने निर्देशित किया है। अब इस कलात्मक प्रभाव के पीछे हमें उत्तराखंड में बीती सदियों में हुएमाइग्रेशनके साक्षात दर्शन हों तो कोई आश्चर्य नहीं! सोलहवींसत्रहवीं सदी में मुगलों के आतंक के चलते मध्य भारत के लोगों को उत्तराखंड किसी पनाहगाह से कम नहीं लगा था। आज भी उत्तराखंड के जोशी खुद को गुजरात से, पंत अपने पुरखों को महाराष्ट्र से और पांडेय अपनी जड़ों को उत्तर प्रदेश से जोड़ते हैं। इस तरह उत्तराखंड के स्थानीय रसों में गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर के मैदानी इलाकों के रसों ने मिलकर रसानुभूति को बढ़ाया। इतिहासकारों का मत है कि उस दौर के शिल्पकारों का कश्मीर, गांधार, उत्तर भारत एवं मध्य भारत तक से संपर्क था, और +नकी कला में ये संपर्क खूब अभिव्यक्ति पाते रहे।कुछ इतिहासकार उत्तराखंड के दरवाज़ोंझरोखों में नेपाल के भक्तपुर की नेवाड़ी परंपरा का प्रभाव देखते हैं। सत्रहवीं सदी में गोरखा हमले और उसके बाद यहां कायम हुए गोरखा शासन ने उत्तराखंड की संस्कृति को प्रभावित करना शुरू किया। इसी तरह, तिब्बत के साथ कारोबारी रिश्तों, माना जैसे दर्रों से गुजरने वाले व्यापारियों के कारवां, गढ़वालकुमाऊं में हुए माइग्रेशन ने भी इस पहाड़ी समाज में नए रंग भरे। दरवाज़ोंखिड़कियों के पल्लों पर घुड़सवार, पक्षी, पेड़पौधे, फूलपत्तियां, स्वास्तिक, देवीदेवता और यहां तक कि ज्यॉमितीय पैटर्न गढ़े जाते रहे हैं।उत्तराखंड के गांवों से गुजरते हुए जब लिखाई कला से सजे द्वारखिड़कियों के दर्शन होते हैं तो ऐसा लगता है कि जैसे पूरी बस्ती को ही किसी कारीगर के हाथों का स्पर्श मिल गया हो। जो जितना समृद्ध घर होता है, उसके द्वारचौखटों की कारीगरी भी उतनी ही समृद्ध दिखती है। यानी, लिखाई कला का वो दौर भी था जब यह मकान मालिक की सामाजिकआर्थिक हैसियत का पुरजोर ऐलान होती थी। लेकिन बीते दशकों के बदलावों ने इस कला को लगभग लील लिया है। 19वीं सदी में जो काष्ठकला अपने चरम पर थी, उसका अवसान अब करीब है। उस दौर में कारीगर को समाज में सम्मान प्राप्त था। काष्ठशिल्प पर बात करने वाले प्राचीन ग्रंथों बृहत संहिता और शिल्प शास्त्र में पेड़ों को काटने की रीति, उन्हें सुखाने और उनसे शिल्प गढ़ने के विधिविधान आज भी चमत्कृत करते हैं। ये ग्रंथ काठ से खेलने वाले शिल्पियों की समाज में महत्वपूर्ण भूमिका स्वीकार करते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब यादों में सिमट गई है. आज कुमाऊंनी कारीगर की कार्यशाला में सून है। दूर-दूर की घाटियों तक में कोई भी तो नहीं, जो नक्काशीदार दरवाज़ों की फरमाइश करे। राजे-रजवाड़े, रईस, जमींदार, महाजनों के युग बीत गए जो इन नक्काशीदार दरवाज़ों-चौखटों के कद्रदान हुआ करते थे। यहां तक कि साधारण घरों में भी काष्ठकला के नमूने आम थे, जो दरअसल एक सिलसिले के जारी रहने के सूचक थे। वो किसी मृत अतीत का आडंबर नहीं, बल्कि एक जीवित परंपरा को दर्शाते थे। मगर आज वही नक्काशीदार द्वार-चौखट उसी परंपरा के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरे की ओर इशारा करते हैं। किसी चौखट में बूटा नहीं रहा तो किसी द्वार पर देवी-देवता, पेड़-पौधे, जानवरों, फूलों, यक्ष-यक्षिणियों के मोटिफ हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट हो चुके हैं। धरोहरों का यों दरकना कोई अच्छा संकेत तो नहीं है।किसी भी दौर के शिल्प, इलाके का सांस्कृतिक माहौल, धार्मिक रीतियां और परंपराएं, लकड़ी और कारीगर का हुनर काफी हद तक नक्काशी के कौशल को संवारता है। इन्हीं प्रभावों में कुछ मोटिफ उभरते हैं जो वक्त की दीवारों को भी फांद जाते हैं और सदियों तक उनकी गूंज स्थानीय कलाओं में दिखायी देती है। यही तो कलाओं के मुहावरे गढ़ते हैं, उनका व्याकरण रचते हैं और कलाकार की कल्पनाओं में रंग भरते हैं। और इनमें किसी भी पहलू पर जब संकट के बादल मंडराते हैं तो कला अपना रूप-रंग और यहां तक कि पूरी शब्दावली बदल डालती है।उत्तराखंड काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है. काष्ठ कारीगर लकड़ी से पाली, ठेकी, कुमया भदेल, ढौकली आदि तैयार करते थे. लेकिन सरकारी उपेक्षा और उचित पैसे नहीं मिलने के कारण उत्तराखंड में अब न काष्ठ रहा और न कलाकार.उत्तराखंड में काष्ठ कला अब विलुप्त होने की कगार पर है.वन विभाग द्वारा आवंटित सूखे पेड़ों से ये कलाकार लकड़ी में जीवन उकेरते हैं. पाली, ठेकी, नलिया, कुमया भदेल, ढौकली उत्तराखंड के हर घर की शान बढ़ाया करते थे. पहाड़ों में राजी जनजाति के लोग ही लकड़ी के बर्तन बनाने की परम्परागत कला जानते हैं. उत्तराखंड की काष्ठ कला का अपना विशिष्ट स्थान है. जिसका प्रभाव देवभूमि के लोक कला, वास्तुकला और चित्रकला में स्पष्ट तौर से देखने को मिलता है. आधुनिकता आज इस परम्परागत कला को लील रही है और काष्ठ के कारीगरों का इस व्यवसाय से मोह भंग हो रहा है. सरकार को इसे बढ़ावा और जीवंत रखने के लिए बढ़ावा देने की आवश्यकता है. वर्तमान में काष्ठ कला से जुड़े परिवारों के सामने भी रोजी रोटी का संकट पैदा हो गया है. जिससे वे अपना पुश्तैनी रोजगार छोड़ने को विवश हैं. काष्ठ कला के कारीगरों का कहना है कि सरकार को इस अतीत की घरोहर को संजोए रखने के लिए प्रयास करने होंगे, जिससे आने वाली पीढ़ी भी इस कला से रूबरू हो सके. देवभूमि में बसे लोगों के घरों की खूबसूरत काष्ठ कला हर किसी को मोहित करती है. देवी देवताओं से लेकर तरह-तरह की डिजाइन की नक्काशी पहाड़ के हर घर की पहचान के रूप में भी थी. यहां तक कि कभी इसे स्टेटस सिंबल के रूप में भी देखा जाता रहा. चंद वंश के समय विकसित हुई यह कला सदियों तक बदस्तूर जारी रही, लेकिन अब इस कला को देखने के लिए आंखें तरस गई हैं.उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब यादों में सिमट गई है. उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब स्मृति चिन्हों तक सिमट गई है. किसी जमाने में घर बनाने से लेकर घरेलू उपयोग में आने वाले लकड़ी के सामान में नक्काशी का प्रचलन था. लेकिन, मौजूदा दौर में उपेक्षा के कारण अब काष्ठ कला धीरे-धीरे लुप्त हो रही है. इतिहास में दर्ज दस्तावेजों के अनुसार कुमाऊं में चंद शासन काल में काष्ठ कला विकसित हुई थी. तत्कालीन राजाओं ने इस कला को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. माना जाता है कि गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान से जैसे-जैसे लोग आते गए, कुमाऊं में काष्ठकला भी विकसित होती रही. यही कारण है कि आज भी इन राज्यों के ग्रामीण अंचलों की कला कुमाऊं की काष्ठकला से मिलती है. अल्मोड़ा का जौहरी बाजार या फिर खजांची मोहल्ला, दोनों ही इलाके शहर के प्राचीनतम जगहों में शुमार हैं. यहां आज भी सैंकड़ों वर्ष पुराने भवन शहर की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं. इन भवनों में काष्ठ कला का विशेष महत्व है. हाथों से लकड़ियों पर तराशी गई नक्काशी और कलाकृतियां लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करते रहते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में पर्वतीय शैली में बने भवन काफी मजबूत होते है. दरअसल, कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक घर वैज्ञानिक दृष्टि से भी काफी फायदेमंद होते है. स्थानीय पत्थर, मिट्टी, गोबर और लकड़ी से तैयार ये घर सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडे होते हैं. इसके साथ ही भूकंप की दृष्टि से भी ये भवन मजबूत माने जाते हैं. लेकिन अब इस कला को जीवंत रखने के लिए कुछ ही गिने चुने कलाकार मौजूद हैं.कुमाऊं की काष्ठ कला में दरवाजे के चारों तरफ झालरनुमा आकृतियां, बीच चौड़ी पट्टी में गणेश आदि देवी-देवताओं के चित्रों के अलावा हाथी आदि के चित्र उकरने की मान्यता रही है. दरवाजे के ऊपर की पट्टी पर लोक देवी-देवताओं के चित्रों की पट्टी बनाई जाती रही है. यही कारण था कि चौखट की नक्काशी भी घर की शान हुआ करती थी. राजतंत्र से लेकर ब्रिटिश शासनकाल तक के इतिहास की इस कला में राजस्थानी और दक्षिण भारतीय कला की झलक देखने को मिलती है. लेकिन, अब पहाड़ों में यह कला सिमटती जा रही है. इतिहासकार का कहना है कि अल्मोड़ा की काष्ठ कला किसी जमाने में काफी प्रसिद्ध थी. नगर में स्थित नक्काशीदार प्राचीन भवन चंद राजाओं के समय के ही हैं और उनके समय में ही काष्ठ कला सबसे ज्यादा होती थी. नगर में लाला बाजार से लेकर कारखाना बाजार, खजांची मोहल्ले में बने पुराने भवन इसी काष्ठ कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिसे देखने दूर-दूर से सैलानी आते हैं. लेकिन मौजूदा दौर में उपेक्षा के कारण अब कुमाऊं में काष्ठ कला विलुप्त होती जा रही है.उत्तराखंड में आज भी पहाड़ों पर लकड़ी के घर मिल जाएंगे, ये मकान 4 से 5 मंजिला होते हैं. हर मंजिल की अपनी खासियत होती है. सबसे बड़ी बात ये है कि कई सौ साल पहले बने ये मकान भूकंपरोधी है. उत्तराखंड में तुन, देवदारू, चीड़ जैसे पेड़ों की कटान पर रोक लगी तो किसे पता था कि जोखिमग्रस्त पर्यावरण को बचाने की खातिर उठाए इस कदम से उत्तराखंड की काष्ठकला ही खतरे में आ जाएगी। तुन की कठोर मगर लचीली लकड़ी पर लिखाई की काष्ठकला ने इस प्रतिबंध के बाद धीरे-धीरे दम तोड़ना शुरू कर दिया। चौखटों-दरवाज़ों के कारीगर ‘कच्चा माल’ नहीं मिलने से बेकार होते रहे। दरअसल, आधुनिक विकास ने जब-जब पर्यावरण के वजूद को चुनौती दी है तो सबसे बड़ा जोखिम उन कारीगरों, कलाकारों, घुमंतू जनजातियों, मछुआरों और कारीगरों को उठाना पड़ा है जो अपने पारंपरिक व्यवसायों के लिए अपने आसपास के वातावरण पर निर्भर करते हैं। इस तरह, हर जगह की अद्भुत खूबियां कालग्रस्त हो जाती हैं। अमूर्त विरासत से लेकर लिखाई जैसी काष्ठकला के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। और यह इतना चुपचाप और इतनी धीमी रफ्तार से होता है कि जब तक समझ में आता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है।लेकिन उपेक्षा और उदासीनता के चलते काष्ठ नक्काशी वाले नए भवन मिलना तो दूर पुराने भवनों को संरक्षित रखना टेढ़ी खीर बनता जा रहा है अमूर्त विरासत से लेकर लिखाई जैसी काष्ठकला के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। और यह इतना चुपचाप होता है कि और इतनी धीमी रफ्तार से होता है कि जब तक समझ में आता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। सीएम ने एक बार फिर से पर्वतीय शैली में घर बनाने के लिए लोगों को प्रेरित किया है। साथ ही नक्शा पास करने को लेकर भी विशेष छूट का प्रावधान दिया है। सीएम ने घोषणा की है कि अगर कोई शहर में मास्टर प्लान के तहत पर्वतीय शैली में मकान बनाता है तो उसे एक मंजिल अतिरिक्त बनाने की अनुमति दी जाएगी। चंद वंश के समय विकसित हुई यह कला सदियों तक बदस्तूर जारी रही, लेकिन अब इस कला को देखने के लिए आंखें तरस गई हैं।  आजादी के बाद तो कारीगर ही नहीं नजर आए। सरकार की ओर से संरक्षण की कोई पहल नहीं हुई। नई पीढ़ी के लिए तो यह विधा सिर्फ इतिहास के पन्नों तक सिमट गई है।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं.