प्रखर राष्ट्रवादी, भारत की एकता व अखण्डता के लिए सदैव समर्पित एस सुदर्शन जी
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सुदर्शन जी मूलत तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे। सुदर्शन जी के पिता श्री सीतारामैया वन-विभाग की नौकरी के कारण अधिकांश समय मध्यप्रदेश में ही रहे और वहीं रायपुर जिले में 18 जून, 1931 को श्री सुदर्शन जी का जन्म हुआ।तीन भाई और एक बहिन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा रायपुर, दमोह, मंडला और चंद्रपुर में हुई।9 साल की उम्र में उन्होंने पहली बार आरएस एस शाखा में भाग लिया। वर्ष 1954 में जबलपुर के सागर विश्वविद्यालय (इंजीनिरिंग कालेज) से दूरसंचार विषय (टेलीकाम/ टेलीकम्युनिकेशंस) में बी.ई की उपाधि प्राप्त कर 23 साल की उम्र में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बने। सर्वप्रथम उन्हें रायगढ़ भेजा गया।सुदर्शन संघ कार्यकर्ताओं के बीच शारीरिक प्रशिक्षण के लिए जाने जाते थे। वह ‘स्वदेशी’ की अवधारणा में विश्वास रखते थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को लोग याद रखेंगे।समरसता और सद्भाव के लिए अपने कार्यकाल के दौरान वह ईसाई और मुस्लिम समाज से सतत संवाद स्थापित करने में प्रयत्नशील रहे।श्री सुदर्शन जी ज्ञान के भंडार, अनेक विषयों एवं भाषाओं के जानकार तथा अद्भुत वक्तृत्व कला के धनी थे। किसी भी समस्या की गहराई तक जाकर, उसके बारे में मूलगामी चिन्तन कर उसका सही समाधान ढूंढ निकालना उनकी विशेषता थी। पंजाब की खालिस्तान समस्या हो या असम का घुसपैठ विरोधी आन्दोलन, अपने गहन अध्ययन तथा चिन्तन की स्पष्ट दिशा के कारण उन्होंने इनके निदान हेतु ठोस सुझाव दिये।उनकी यह सोच थी कि बंगलादेश से असम में आने वाले मुसलमान षड्यन्त्रकारी घुसपैठिये हैं। उन्हें वापस भेजना ही चाहिए, जबकि वहां से लुट-पिट कर आने वाले हिन्दू शरणार्थी हैं, अतः उन्हें सहानुभूतिपूर्वक शरण देनी चाहिए।श्री सुदर्शन जी को संघ-क्षेत्र में जो भी दायित्व दिया गया उसमें उन्होंने नये-नये प्रयोग किये। 1969 से 1971 तक उन पर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व था। इस दौरान ही खड्ग, शूल, छुरिका आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर नियुद्ध, आसन, तथा खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक पाठ्यक्रम में स्थान मिला।1979 में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। शाखा के अतिरिक्त समय से होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को सुव्यवस्थित स्वरूप 1979 से 1990 के कालखंड में ही मिला। शाखा पर होनेवाले ‘प्रातःस्मरण’ के स्थान पर नये ‘एकात्मता स्तोत्र’ एवं ‘एकात्मता मन्त्र’ को भी उन्होंने प्रचलित कराया। 1990 में उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी।राष्ट्रप्रेम व धर्मरक्षक दोनों छवियों का सामूहिक मिश्रण अगर कहीं देखा जाय तो वंदनीय के एस सुदर्शन जी से बेहतर शायद ही कहीं देखने को मिले .ये वो दिव्यात्मा थे जिन्होंने अपना जीवन एक एक पल इस देश को समर्पित करते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को विशालता व भव्यता प्रदान की थी ..आज ही के दिन भूलोक स्व देवलोक प्रस्थान कर गए वंदनीय के एस सुदर्शन जी को आज करोड़ो लोग अपना आदर्श मान कर उनके जीवन से धर्म व देश के लिए प्रेम की प्रेरणा लेते हैं .पूर्व सरसंघचालक कुप्पहल्ली सीतारामय्या सुदर्शन को न सिर्फ संघ में बल्कि आम जनमानस में भी मानव प्रेम प्रतीक माना जाता था। उनका देहांत आज ही रायपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय कार्यालय जागृति मंडल में वर्ष 2012 मेंं निधन हो गया था, तब वह 82 वर्ष के थे। श्री सुदर्शन जी मूलत: तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) गांव के निवासी थे। कन्नड़ परंपरा में सबसे पहले गांव फिर पिता और बाद में स्वयं का नाम होने के कारण उनका नाम कुप्पहल्ली सीतारमय्या सुदर्शन पडा था। उनके पिता सीतारमय्या वन विभाग की नौकरी के कारण अधिकांश समय अविभाजित मध्यप्रदेश में ही रहे और यहीं रायपुर में 18 जून 1931 को सुदर्शन का जन्म हुआ। तीन भाई और एक बहन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। उन्होंने रायपुर, दमोह, मंडला तथा चंद्रपुर में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की और बाद में जबलपुर से 1954 में दूरसंचार विषय में बीई की उपाधि ली तथा इसके साथ ही वे संघ प्रचारक के नाते आरएसएस में शामिल हो गए।संघ प्रचारक के रूप में सुदर्शन जी को सबसे पहले रायगढ़ भेजा गया। प्रारंभिक जिला, विभाग प्रचारक आदि की जिम्मेदारियों के बाद सुदर्शन जी वर्ष 1964 में मध्यभारत के प्रांत प्रचारक बने। सुदर्शन जी को संघ में जो भी दायित्व मिला उन्होंने उसमें नवीन सोच के आधार पर नए नए प्रयोग किए । वर्ष 1969 से 1971 तक उन पर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व था। इस दौरान ही खड्ग, शूल, छूरिका आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर नियुध्द, आसन, तथा खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक पाठ्यक्रम में स्थान मिला।सुदर्शन जी अपनी बेबाकी के लिए भी जाने जाते रहे हैं । पंजाब के बारे में उनकी यह सोच थी कि प्रत्येक केशधारी हिंदू है और प्रत्येक हिंदू दसों गुरुओं व उनकी पवित्र वाणी के प्रति आस्था रखने के कारण सिख है। वह वर्ष 1979 में अखिल भारतीय बौध्दिक प्रमुख बने। इस दौरान भी उन्होंने नए प्रयोग किए तथा शाखा पर होने वाले प्रात:स्मरण के स्थान पर नए एकात्मता स्तोत्र और एकात्मता मंत्र को भी प्रचलित कराया। आज एकात्मता स्तोत्र करने के बाद ही उनका निधन हुआ। सुदर्शन को वर्ष 1990 में संघ में सहसरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गई।सुदर्शन 10 मार्च वर्ष 2000 को पांचवे सरसंघचालक बने। नागपुर में हुई अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के उद्घाटन सत्र में रज्जू भैया ने उन्हें यह दायित्व सौंपा था। नौ वर्ष तक इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभाने के बाद सुदर्शन ने अपने पूर्ववर्ती सरसंघचालकों का अनुसरण करते हुए 21 मार्च 2009 को सरकार्यवाह आदरणीय मोहन भागवत जी को छठवें सरसंघचालक का कार्यभार सौंपा। संघ प्रमुख ने एक इस्लामी विद्वान का हवाला देते हुए कहा कि इस्लाम के धर्म दर्शन से नावाकिफ कुछ लोगों ने मजहब की गलत व्याख्या की जिससे इस्लाम बदनाम हुआ। उन्होंने कहा कि इस्लाम की संकीर्ण व्याख्या के कारण ही धार्मिक कटटरता असहिष्णुता और आतंकवाद का जन्म हुआ। उन्होंने कहा कि भारत में नेताआें द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाने से मुसलमानों का अलगाव और बढ़ा है। मदरसों में दीनी और दुनियावी इन दोनों शिक्षाआें पर समान रूप से जोर देने की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि मदरसों में ऐसी आधुनिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए जिससे योग्य और सक्षम डाक्टर, इंजीनियर और विशेज्ञय पैदा हों जो विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रनिर्माण में योगदान करें। उन्होंने मदरसों का पाठयक्रम बदलने का सुझाव दिया ताकि मुस्लिम समाज का अलगाव खत्म हो। भारतीय कृषि के बारे में भी उनका बड़ा आग्रह था कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जो बीज दे रही हैं, वह जेनेटिकली मोडिफाइड हैं। उन्हें गहरे और निरंतर प्रयोगों के बिना स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि कालांतर में इनका दुष्प्रभाव हमारी खेती पर पड़ेगा। और आज वास्तव में वह दिखाई भी दे रहा है। वे जहाँ भी जाते थे, इसका आग्रह करते थे कि ये बीज देश और किसान के लिए घातक हैं। इसलिए उनका जैविक खेती पर बड़ा आग्रह रहता था। इसी से संबंधित गौ, पंचगव्य, गाय का कृषि में स्थान,कृषि की भूमिका-यह पूरा चक्र उन्होंने अपने चिंतन से बनाया था। वे वे मानते थे कि गौ, ग्राम, कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था ही मंगलकारी है। पोषणक्षम विकास नहीं, बल्कि पोषणक्षम उपयोग को वरीयता दी जानी चाहिए, क्योंकि असीमित उपयोग खतरनाक है। उनका आग्रह बिजली, पानी के उपयोग में भी एक संयमित दृष्टि विकसित करने पर रहता था। केवल कहने भर के लिए ही वे ऐसा नहीं कहते थे, बल्कि उनके व्यवहार में भी यह परिलक्षित होता था। वे पूरा गिलास पानी कभी नहीं लेते थे। पानी को व्यर्थ क्यों करें। इसी तरह देश में पेट्रोल व डीजल की कमी को लेकर वह इसके विकल्प खोजने के बारे में प्रयत्नशील रहते थे। इस विषय पर उन्होंने कई वैज्ञानिकों से चर्चा की और परिणामस्वरूप प्लास्टिक के कूड़े से पेट्रोल बनवाकर दिखाया और उसे प्रयोग के तौर पर परखा भी। इस तरह के प्रयोगों के द्वारा प्रकृति के संरक्षण के प्रति उनका बड़ा आग्रह रहता था। वे उस पर हमेशा बल देते थे। बायोडीजल के उत्पादन और उससे खेती किए जाने पर भी उनका आग्रह रहता था। इसके लिए कौन-कौन वैज्ञानिक सहायक होंगे, उन्हें बुलाने, बैठाकर चर्चा कराने का उनका लगातार आग्रह रहता था।आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें बारम्बार नमन करते हुए उनके यशगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प है.