तो क्या नौकरी करने वालों का ही था सिर्फ कसूर!

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नौकरी करने वालों का ही था सिर्फ कसूर!

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

राज्य में 2003 से तदर्थ नियुक्तियों पर पूरी तरह रोक होने के कारण विशेष परिस्थितियों में होने वाली नियुक्तियों के लिए कैबिनेट के साथ ही कार्मिक विभाग की जरूरी मंजूरी तो क्या ही ली जाती, इसके लिए एक विज्ञापन तक निकलने की जरूरत महसूस नहीं की गई। कोई गौर करे तो उसके लिए यह जानना दिलचस्पी से खाली होगा कि उपनल के तहत कुमाऊं मंडल के बेरोजगारों का हल्द्वानी में और गढ़वाल मंडल के बेरोजगारों का देहरादून में रजिस्ट्रेशन होता है। लेकिन आश्चर्य की बात है विधानसभा में हुई इन नियुक्तियों के सारे रजिस्ट्रेशन ही केवल देहरादून कार्यालय में ही हुए हैं। रक्षक पद पर हुई 44 नियुक्तियों के लिए जरूरी शारीरिक परीक्षण से भी इनको बाहर रखा गया। चतुर्थ श्रेणी के 17 पदों के सापेक्ष 23 लोग सीधी भर्ती से नौकरी हासिल किए हैं। मतलब छह लोग पिछले डेढ़ साल से वित्त विभाग की मेहरबानी से बिना पद के तनख्वाह ले रहे हैं। इससे पूर्व विधानसभा अध्यक्ष2002  2011  के समय में भी तमाम नियुक्तियां की गई थीं, उन पर किसी ने सवाल नहीं उठाए।विधानसभा बैकडोर से नौकरी पाने वाले लोगों पर आज कार्रवाई करते हुए उनकी नियुक्ति को निरस्त कर दिया गया,  लेकिन जिन लोगों ने इन्हें नियमों का उल्लंघन करते हुए नौकरियां दी थी, उन पर कब और क्या कार्रवाई होगी? विधानसभा की विवादित भर्तियों के निरस्त होने के बाद अब यह सवाल सभी की जुबां पर है।विधानसभा में वर्ष 2016 से वर्ष 2021 तक की 250 भर्तियों को नियमविरुद्ध पाए जाने पर शुक्रवार को उन्हें निरस्त करने  निर्णय किया गया है। लेकिन जिन लोगों ने ये भर्तियां की, उस पर कोई खुलासा नहीं किया गया। नियुक्तियां करने वाले सभी विधानसभा अध्यक्ष और उनके सभी अफसरों को संसदीय कार्यप्रणाली का जानकार माना जाता है। नौकरी पाने वाले को नियम-कायदों की जानकारी नहीं थी।उन्हें जैसे ही बैकडोर दिखाई दिया वो वहां से विधानसभा में प्रवेश कर गए, लेकिन भर्तियां करने वाले तो कायदे-कानूनों के पूरे जानकार थे। आज जांच समिति की जिस रिपोर्ट के आधार पर भर्तियां निरस्त की गई हैं, उसमें साफ साफ लिखा है इन भर्तियों में न तो संविधान के समानता के अधिकार का पालन किया गया है। और, उत्तराखंड सरकार के वर्ष 2003 के कार्मिक विभाग के जीओ की भी अनदेखी की गई है। वर्ष 2016 में 150 लोगों की भर्ती की गई। उनके वेतन भत्तों पर खजाने से लाखों रुपये खर्च हुआ है।कानून के जानकारों का कहना है कि गलत तरीके से नौकरी पाने वाले के साथ ही नौकरी दिलाने वाला भी बराबर का दोषी होता है। उस पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। बार काउंसिल ऑफ उत्तराखंड के सदस्य ने कहा कि नौकरी से निकाले गए लोग हाईकोर्ट जाकर हटाए जाने के आदेश के खिलाफ अपील कर सकते हैं।उन्होंने कहा कि नौकरी किसी को गलत तरीके से दी गई तो उसमें अनुचित तरीके से नौकरी पाने वाले की तरह नौकरी दिलाने वाला भी दोषी होता है। इसमें उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है।  एडवोकेट कहते हैं कि विस अध्यक्ष संविधान के अनुच्छेद 187 के तहत राज्यपाल की अनुमति से नियुक्तियां कर सकते हैं। लेकिन जो तथ्य जांच कमेटी ने सामने रखे हैं, वो काफी गंभीर है। कर्मचारी इस मुद्दे को हाईकोर्ट के समक्ष रख सकते हैं कि उन्हें अधूरी जानकारियां दी गईं।जब सरकार मान रही है कि नियुक्तियां गलत हुई हैं, तो इन गलत नियुक्तियों को करने वालों के खिलाफ भी सरकार को मुकदमा दर्ज करवाना चाहिए। नौकरी से हटाए गए अभ्यर्थियों को भी छूट नहीं दी जा सकती है। क्योंकि किसी भी अपराध के संबंध में कोई यह नहीं कह सकता कि, मुझे कानून की जानकारी नहीं थी इसलिए मुझे माफ किया जाए। देवभूमि को शर्मसार करने का काम किया है। इनमें से एक घटना ने तो निर्भया कांड की याद को ताजा कर दिया। दूसरी घटना ने राज्य के जनसेवकों द्वारा पिछले 22 साल से किए जा रहे भ्रष्टाचार को उजागर करने का काम किया। राज्य की विधानसभा में जहां अधिकतम 125 से 150 लोगों से काम चलाया जा सकता था वहाँ हर विधानसभा अध्यक्ष ने बिना जरूरत के नियम कानून को ताक पर रखकर, नियुक्तियाँ करके 500 से अधिक लोगों को लोगों की भीड़ जमा कर दी। उत्तराखंड की विधानसभा में विगत 22 साल में जितने लोगों को नौकरी दी गई उतने लोगों के लिए विधानसभा भवन में बैठने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है इतने लोगों के लिए विधानसभा सचिवालय में कोई काम भी नहीं है। जिम्मेदार लोगों द्वारा बिना जरूरत के आवश्यकता से ज्यादा लोगों को भर्ती करने से जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे को बर्बाद करने का अपराध किया गया है। इस तरह अनियमित तरीके से नौकरी बांटने से पात्र बेरोजगारों का हक भी मारा गया है। बल्कि उनका दर्द यह है कि पिछले विधानसभा अध्यक्षों ने जो नियुक्तियां की हैं, उन पर कोई बात नहीं कर रहा है। छोटी विधानसभा में कार्मिकों की फौज के तर्क को वह यह कहकर खारिज कर रहे हैं कि विधानसभा छोटी हो या बड़ी, काम उतना ही होता है। 2011 से पहले विधानसभा में जो नियुक्तियां हुई थीं, वह कर्मचारी नियमित हो चुके हैं। उनकी नियुक्ति कैसे हुई, नियमितिकरण कैसे किया गया, पदोन्नतियां कैसे हुईं, इस पर विधिक राय लेने के बाद कार्रवाई की जाएगी यह एक ऐसी घटना है ,जिसने उत्तराखंड के विकास को खुली किताब की तरह सबके सामने रख दिया।  हमारे सपनो के राज्य में माफिया दीमक की तरह कितने अंदर तक घुस चूका है ,इस घटना से स्पष्ट रूप से पता चल रहा है। जहाँ नेता अपने रिश्तेदारों को पिछले दरवाजे से सरकारी नौकरी में बिठाकर सब कुछ नियम से हो रहा है का दम्भ भर रहे हैं। सरकार रोज एक एक बलि बकरा पकड़ कर ,युवा आक्रोश को शांत करने की कोशिश में लगी है। वही बेरोजगार युवा रोड पर धक्के खा कर अपना आक्रोश व्यक्त कर रहा है.