दीपावली पर अच्छी बिक्री की उम्मीद में मिट्टी के दीये बनाने में जुटे कुम्हार
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्राचीन और समृद्ध हस्तकला ‘कुम्हारी कला‘ को बढावा देने की जरुरत पर बत देते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने कहा कि इसके लिए मुख्यमंत्री आवास और सचिवालय में मिट्टी से बने कुल्हाड़ों में चाय दी जाएगी। ‘कुम्हारी कला‘ को पुनर्जीवित करने को लेकर यहां एक बैठक में मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रदेश में अनेक परिवार इस कला से जुड़े हैं और केंद्र की ‘कुम्हार सशक्तिकरण योजना‘ का उद्देश्य कुम्हारी कला को पुनर्जीवित करना एवं समाज के सबसे कमजोर वर्गों में से एक कुम्हार समुदाय को सामाजिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त कर विकास की मुख्यधारा में लाना है।मुख्यमंत्री ने कहा, ‘कुम्हार हस्तकला को राज्य में बढ़ावा देने के लिए मुख्यमंत्री आवास एवं सचिवालय में मिट्टी से बने गिलासों (कुल्हाड़ों) में चाय देने की शुरुआत की जाए। इसे व्यापक स्तर पर प्रदेश भर में बढ़ावा दिया जाए।’ दीप पर्व दीपावली नजदीक आ चुकी है। एसे मे दूसरों के घरों को रोशन करने के साथ ही अपने घर भी खुशियां लाने की उम्मीदों संब कुम्हारों का चाक घूमना शुरू हो गया है। दीयों के बाजार भी सज चुके हैं। चाइनीज सामानों के बहिष्कार इन कुम्हारों की उम्मीदें और बढ़ा रहा है। दीपावली 24 अक्तूबर को मनाई जाएगी। दीप पर्व पर मिट्टी के दीयों से घर को रोशन करने की परंपरा सदियों पुरानी है। इसका अपना महत्व भी है। ऐसे में दीपावली के नजदीक आते ही कुम्हार दीये बनाने के काम में तेजी से जुट गए हैं। उन्हें उम्मीद है कि इस बार उनकी दीवाली भी रोशन रहेगी। मिट्टी के दीपक, मटकी आदि बनाने के लिए माता-पिता के साथ उनके बच्चे भी हाथ बंटा रहे हैं। कोई मिट्टी गूंथने में लगा है तो किसी के हाथ चाक पर मिट्टी के बर्तनों को आकार दे रहे हैं। हालांकि पिछले कुछ समय में आधुनिकता के इस दौर में दीयों का स्थान बिजली के झालरों ने ले लिया है। ऐसे में कुम्हारों के सामने आजीविका का संकट गहरा गया है। चाइनीज झालरों ने इन कुम्हारों को और चोट पहुंचाई। इस कारण वर्ष भर इस त्योहार की प्रतीक्षा करने वाले कुम्हारों की दीवाली अब पहले की तरह रोशन नहीं रही। मगर पिछले कुछ वर्षों से स्वदेशी निर्मित उत्पादों के प्रयोग को लेकर कई स्वयंसेवी संगठन खड़े हुए हैं। कुम्हार ने बताया कि शुरुआत में दीयों की कीमत कम होती है। मगर जैसे-जैसे त्योहार नजदीक आता है और डिमांड बढ़ती जाती है, दीयों के रेट भी बढ़ते जाते हैं। दीपावली तक 100 रुपये सैकड़ा तक दीए बिक जाते हैं। डिजायनर दीए थोड़े महंगे होते हैं। हालांकि मिट्टी लाने व दीये बनाने से लेकर पकाने में जो खर्च होता है, उसके हिसाब से लाभ नहीं हो पाता। दीये पकाने के लिए लकड़ियां भी अब जल्दी नहीं मिलती। जाे ईधन लगता है, वह काफी महंगा हो चुका है। ऐेस में लागत ही निकल आए, वही हमारे लिए बेहतर होता है, लाभ कमाने की तो बात ही नहीं। रक्षा बंधन पर्व पर चायनीज राखियों के विरोध का खासा असर दिखाई दिया था। इसके परिणाम स्वरूप स्वदेशी निर्मित उत्पादों की बिक्री में खासी बढ़ोतरी हुई थी।कुम्हार दिवाली में भी ऐसे ही स्वदेशी दीयों को ग्राहक मिलने की उम्मीद कर रहे हैं। इसी उम्मीद में कुम्हारों के चाक फिर से चल पड़े हैं।उन्हें उम्मीद है कि एक बार फिर से उनके अच्छे दिन लौटकर आएंगे। इसी उम्मीद में दीये तैयार करने का काम जोरों पर चल रहा है। कुम्हारी कला को पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए भी अच्छा बताते हुए धामी ने इससे जुड़े लोगों के लिए उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था एवं उसे मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना में भी जोड़ने को कहा। उन्होंने कहा कि दीवाली पर कुम्हारों द्वारा निर्मित दीए एवं अन्य उत्पादों की खरीद के लिए भी लोगों को प्रेरित किया जाए। कुम्हारों को उन्नत किस्म के मिट्टी मिल सके इसके लिए जगह चिन्हीकरण के साथ कुम्हारों को आवश्यकतानुसार एवं मानकों के हिसाब से निःशुल्क मिट्टी उपलब्ध कराने की व्यवस्था किए जाने की बात कही। साथ ही मुख्यमंत्री आवास एवं सचिवालय में मिट्टी से बने गिलासों में चाय देने और प्रदेश भर में इसे बढ़ावा दिए जाने की बात कही। मुख्यमंत्री एवं अधिकारियों ने सचिवालय में मिट्टी के गिलासों में चाय पीकर इस मिशन की शुरूआत की। मुख्यमंत्री ने निर्देश दिए कि प्रत्येक तीन माह में कुम्हारी कला की समीक्षा बैठक की जाएगी। हस्तकला को बढ़ावा देने के लिए एक पोर्टल बनाने और इस विधा से जुड़े लोगों के सुझावों को ध्यान में रखते हुए, उन्हें हर सम्भव मदद दिए जाने की बात कही। साथ ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में हुनर हाटों में हस्तकला से जुड़े लोगों को भेजे जाने की बात कही। दीपावली पर्व पर धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के दीपक जलाए जाते हैं. मिट्टी गढ़कर उसे आकार देने वालों पर शायद धन लक्ष्मी मेहरबान नहीं है, जिस चलते वे अपने परंपरागत धंधे से विमुख होते जा रहे हैं. दीपावली पर्व पर मिट्टी का सामान तैयार करना उनके लिए महज एक सिजनल धंधा बनकर रह गया है. अगर वे दूसरा धंधा नहीं करेंगे तो दो जून की रोटी जुटा पाना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।