पहाड़ के परंपरागत वाद्य यंत्र हुड़का को सहेज रहे बांसुरी वादक की उपेक्षा

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पहाड़ के परंपरागत वाद्य यंत्र हुड़का को सहेज रहे बांसुरी वादक की उपेक्षा

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

विलुप्ति की कगार पर उत्तराखंड के पौराणिक वाद्य यंत्र, बजगियों की विधा को संजोने की दरकारउत्तराखंड में खास मौकों पर ढोल दमाऊ की थाप सुनाई देती है. इसके बिना देवभूमि में मांगलिक कार्य अधूरे से लगते हैं. ढोल वाद्य यंत्र से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है, लेकिन अब ढोल दमाऊ के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है. इतना ही नहीं शायद यही पीढ़ी बची है, जो ढोल सागर की विधा को जानती है. आने वाले समय में यह विधा लुप्त हो सकती है. ऐसे में इसे संजोए रखने की दरकार है.उत्तराखंड की संस्कृति की हो या फिर धार्मिक कार्यक्रमों की, हुड़के के बिना कार्यक्रम अधूरे हैं। हुड़के का पहाड़ की लोक संस्कृति, लोक महोत्सव व धार्मिक महोत्सवों में अहम स्थान है। आधुनिकता की दौड़ में गायब हो रहे इस हुड़के को बचाने और बढ़ाने की बागेश्वर निवासी मोहन चंद्र जोशी ने कवायद शुरू की।बांसुरी व हुड़का वादन कला में निपुण भिंगड़ी गांव निवासी मोहन चंद्र जोशी बीते कई सालों से इस विधा से जुड़े हुए हैं। विभिन्न मंचों में बांसुरी व हुड़का वादन से लोगों का दिल जीत चुके मोहन ने पहाड़ की इस विरासत को आगे बढ़ाने के लिए खुद ही हुड़का बनाने का बीड़ा भी उठाया है।हुड़के की थाप, उसके महत्व और उसकी उपयोगिता को समझाते हुए मोहन अभी तक 20 से अधिक हुड़के बड़े शहरों में पहुंचा चुके हैं। बताया कि एक हुड़के को बनाने में करीब एक महीने का समय लगता है। इसकी कीमत तीन हजार रुपये है। बताया कि उनकी मुहिम रंग लाई तो जल्द ही दिल्ली व मुंबई जैसे बड़े शहरों में भी बागेश्वर के हुड़के की थाप सुनाई है।।अब तक मोहन जोशी को प्रयाग संगीत समिति (इलाहाबाद) सेसंगीतप्रभाकरकी उपाधि भी मिल चुकी है. अब उनकी बांसुरी की धुन, दूरदर्शन के अलावा आस्था, श्रद्धा आदि चैनलों में भी प्रसारित होती रहती है. लोक एवं शास्त्रीय संगीत के साथसाथ अब वहभजन संगीतसे भी जुड़े हुए हैं. कोरोना काल से पहले हल्द्वानी समेत कई बड़े शहरों में वह लाइव कन्सर्ट (इंस्टूमेंटल शोज़) कर चुके हैं. लाइव कन्सर्ट में सभी प्रकार के संगीत, बालीवुड, रेट्रो, भजन, सूफी, फ्यूज़न संगीत की धुनें शामिल होती हैं. अभी वर्तमान में वो उत्तराखंडी संगीत और भजनों पर रिकॉर्डिंग का कार्य कर रहे हैं, जिसमें देहरादून के सुप्रसिद्ध संगीतकार रंजीत सिंह का उन्हें रिकॉर्डिंग बारीकियों को समझाया. मोहन के कई रूप हैं. बांसुरी से प्रेम हुआ तो आठ साल पहले इस बारे में ढूंढ खोज करनी शुरू कर दी कि प्रोफेसनल बांसुरी बनती कैसे है. इस पर असम और दिल्ली से बांस मंगाए और उसे बनाने के औजार लेकर घर में ही बांसुरी बनाना शुरू कर दिया. देवभूमि उत्तराखंड बागेश्वर से आए लोक कलाकार मोहन चंद जोशी ने पर्वतीय महापरिषद उत्तराखंड द्वारा आयोजित उत्तरायणी कौतिक 2023 में विभिन्न लोक एवं प्रचलित वाद्य यंत्रों के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुति दी। अपने दादा से विरासत में प्राप्त जोया मुरली बजाने के हुनर का प्रदर्शन कर उन्होंने खूब वाहवाही लूटी।
ध्यातव्य है कि जोया मुरली भारतीय लोक वाद्य यंत्र विलुप्त हो चुकी श्रेणी में आती है, जिसे पुनर्जीवित करने का प्रयास मोहन जोशी के द्वारा किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से मुलाकात की इस दौरान लोकसंगीत की चर्चा की गई। उनके द्वारा मुख्यमंत्री के समक्ष अपने हाथों से बनाये जौयाँ मुरली,बाँसुरी व हुड़के की प्रस्तुति दी गई। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा बांसुरी एवं उत्तराखंड के लोक वाद्य यंत्र हुड़के पर विभिन्न गीतों के माध्यम से मनमोहक प्रस्तुति दी गई।जिसकी मुख्यमंत्री एवं अन्य गणमान्य के द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई।
लोक कलाकार मोहन चंद्र जोशी ने उत्तराखंड से आये सभी कलाकारों को पर्वतीय महापरिषद लखनऊ द्वारा मुख्यमंत्री योगी से शिष्टाचार भेंट कराने के लिए आभार व्यक्त किया। मोबाइल, टीवी, इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में हर चीज बदल रही है। परंपरा और लोक संस्कृति से युवा पीढ़ी को दूर करती जा रही है। पहाड़ की कला, संस्कृति पर इसका खासा असर नजर आ रहा है। हुड़का पहाड़ का ऐसा वाद्ययंत्र है जिसे यहां संगीत समारोहों में बजाया जाता है। लेकिन इस वाद्ययंत्र काे बनाने वाले अब कम ही लोग बचे हैं। हुड़का वादक मोहन चंद्र जोशी ने बताया कि दो साल पहले से हुड़का बना रहा हूं। तीन हजार रुपये लागत आ रही है। एक दर्जन हुड़के दूसरे राज्यों में पार्सल के जरिए भेजें हैं। डिमांड लगातार बढ़ रही है। हुड़का उद्योग लगाने की सोच रहा हूं। विलुप्ति की कगार पर उत्तराखंड के पौराणिक वाद्य यंत्र, बजगियों की विधा को संजोने की दरकार उत्तराखंड में खास मौकों पर ढोल दमाऊ की थाप सुनाई देती है. इसके बिना देवभूमि में मांगलिक कार्य अधूरे से लगते हैं. ढोल वाद्य यंत्र से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है, लेकिन अब ढोल दमाऊ के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है. इतना ही नहीं शायद यही पीढ़ी बची है, जो ढोल सागर की विधा को जानती है. आने वाले समय में यह विधा लुप्त हो सकती है. ऐसे में इसे संजोए रखने की दरकार है.उम्मीद की जानी चाहिए कि उत्तराखंड महकमा पूरी मुस्तैदी और गंभीरता से इस योजना को धरातल पर तस्वीर संवर सके

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।