गढ-कुमांऊ की अनूठी समाजिक तथा पारंपरिक संस्कृति का प्रतीक ऋतुपर्व ‘फूलदेई’ सम्पन्न

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गढ-कुमांऊ की अनूठी समाजिक तथा पारंपरिक संस्कृति का प्रतीक ऋतुपर्व ‘फूलदेई’ सम्पन्न
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सी एम पपनैं

नई दिल्ली। प्रकृति से जुड़ा तथा गढ़-कुमांऊ की अनूठी सामाजिक तथा पारंपरिक संस्कृति का प्रतीक, हिमालयी पावन ऋतुपर्व ‘फूलदेई’, डीपीएमआई सभागार अशोकनगर मे, 14 मार्च की सांयकालीन बेला पर, कोरोना विषाणु संक्रमण के बढ़ते, दूसरे दौर की दहशत को दरकिनार कर, बड़ी निष्ठा, उत्साह व हर्षोल्लास के साथ, उत्तराखंड के प्रबुद्ध समाजिक, सांस्कृतिक व अन्य जनसरोकारों से जुडे संगठनों के पदाधिकारियों, समाजसेवियों, साहित्यकारों व पत्रकारों की उपस्थिति मे मनाया गया।

लोकपर्व ‘फूलदेई’ आयोजन का श्रीगणेश, प्रबुद्ध रंगकर्मियो, समाजसेवियो, साहित्यकारों व पत्रकारों के कर कमलो, डीपीएमआई संस्थापक विनोद बछती के सानिध्य में, दीप प्रज्वलन तथा सु-प्रसिद्ध संगीतकार व गायक कृपाल रावत द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना-
वर दे वीणा वादिनी वर दे…।
के गायन से किया गया।

इस अवसर पर अन्य संगीतकारो राजेन्द्र चौहान व जगदीश ढोंडियाल के संगीत निर्देशन व शेखर भट्ट (हुड़का) व अनुराग (तबला) वादको की संगत में, लोकगायिका कल्पना चौहान तथा युवा गायक जगमोहन रावत, प्रकाश मिलन, आशा जोशी व शिखर भट्ट द्वारा चटक अंदाज मे, प्रस्तुत सु-मधुर गढ़वाली व कुमांऊनी, फूलदेई व होली गीतो के गायन ने समा बाध, सभागार मे बैठे श्रोताओं को, नाचने व झूमने को मजबूर किया।

जगदीश ढोंडियाल के बसंत ऋतु पर गाया गीत- ऋतुओ को राजा, ऋतुओ की रानी….।
भगवती प्रसाद जुयाल की रचना-
उठ फुलारी बीजी जादी…
रत व्याणी तिकु टैंम व्हेगी…
रीत रिवाजु कू रसम निभोला…। तथा साहित्यकार रमेश घिन्डियाल की रचना-
आज कोई खास बात होगी मेरी…
रंग बरषात अबकी होली मे… अब हो जाए एक, अब की होली मे…।
श्रोताओं द्वारा बहुत सराही व पसंद की गई।

डीपीएमआई निर्देशक विनोद बछेती द्वारा, सभी प्रबुद्धजनो का ‘फूलदेई’ लोकपर्व को बडी संख्या मे एकत्रित होकर, सामूहिक रूप मे, हर्षोल्लास के साथ मनाने पर, खुशी व्यक्त की गई। उपस्थित सभी प्रबुद्ध जनो के प्रति, आभार व्यक्त किया गया। 21 मार्च को कनाटप्लेस के चर्खा पार्क, (रीगल सिनेमा के सामने) ‘उत्तराखंड रंगोत्सव दिल्ली 2021’ भव्य ‘होली मिलन’ मे, दिल्ली एनसीआर मे प्रवासरत, उत्तराखंड के सभी प्रबुद्धजनो को, आयोजित कार्यक्रमो मे, उत्तराखंड की लोक संस्कृति के वाहक बन तथा पारंपरिक लोक परिधान इत्यादि के साथ, बडी़ संख्या में, शामिल होने का निमंत्रण, दिया गया।

आयोजित लोकपर्व का मंच संचालन, राजेन्द्र चौहान द्वारा बखूबी किया गया। सभागार मे, उत्तराखंड के प्रमुख प्रबुद्धजनो मे उपस्थित, मदन ढुकलान, दयाल सिंह नेगी, दर्शन सिंह, गिरधर रावत, सच्चीदानंद शर्मा, प्रताप थलवाल, दलीप बिष्ट, दिनेश ध्यानी, अनिल पंत, आनंद प्रकाश इत्यादि के साथ-साथ बडी संख्या में, उत्तराखंड की विभिन्न प्रवासी सामाजिक संगठनो से जुडी, मातृशक्ति भी उपस्थित थी।

प्रकृति से जुड़ा तथा गढ़-कुमांऊ की अनूठी सामाजिक तथा पारंपरिक संस्कृति का प्रतीक हिमालयी पावन ऋतुपर्व ‘फूलदेई’, उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों मे, पारंपरिक तौर पर, बाल पर्व के रूप में पीढी दर पीढ़ी, चैत्र संक्रांति के दिन, मनाया जाता है। कुछ स्थानों मे यह लोकपर्व, आठ दिनों तक व टिहरी के कुछ इलाकों में, एक माह तक, मनाए जाने की परंपरा रही है। नैनीताल जिले के, भतरोज व कोस्या के इलाके में, इस बाल पर्व को, वैशाखी के दिन मनाए जाने की परंपरा चलायमान है।

पारंपरिक तौर पर, उत्तराखंड के गढ़-कुमांऊ के गांवो मे, नौनिहालो द्वारा, गांव के प्रत्येक घर की ध्येली पर बाशिंग, गुलवंश, संगीन, मौनी, क्वैराव, प्योली तथा बुरांश के फूल, निवासरत गांव वालों की मुख्य ध्येली पर, उनकी समृद्धि व सम्पन्नता हेतु, चढ़ाए जाते हैं।

उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग मे, सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाने तथा जंगलो मे बुरांश सहित विभिन्न प्रकार के फूलों की चादर बिछ जाने पर, प्रकृति का सौन्दर्य निखरा देख, नौनिहालो के बाल मन द्वारा, बसंतऋतु के सौन्दर्य की भांति, अपने गांव के हर घर-परिवार के सौंदर्य व खुशहाली की चाहत हेतु, फूलदेई पर्व, मनाए जाने की परंपरा, पीढ़ी दर पीढ़ी चलायमान रही है।

फूलदेई त्यौहार की पूर्वसंध्या पर, गांव के नौनिहाल, जंगल से विभिन्न प्रकार के फूलो को तोड़, फूलदेई के शुभदिन, उक्त सुगंध व सौन्दर्यमानयुक्त फूलों को, गांव के प्रत्येक घर की चौखट पर चढ़ा, तथा बालमन के आसिर बचनों-
फूल देई, छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार…हम ओल बारंबार…। के बोलों के साथ, उत्साहित होकर, प्रत्येक घर से, उपहार स्वरूप गुड़, चावल, गेहूं, पैसा इत्यादि प्राप्त कर, पर्व का आनंद मनाते हैं।

बसंत की अगुवाई वाले, अनेक किवदंतियों से जुड़े, उत्तराखंड के चैत्रमास मे मनाए जाने वाले ‘फूलदेई’ त्यौहार के इस पावन पर्व के दिन से ही, हिंदू शक संवत आरंभ होता है। यही वह ऋतु है, जहां से सृष्टि ने अपना श्रंगार करना शुरू किया तथा मानव के ह्रदय मे, कोमलता का वास उत्पन्न हुआ।

भू-मंडलीकरण के प्रभाव, तथा बढ़ते रोजगार के अभाव के कारण, उत्तराखंड के पहाडी गांवो से, जीवनयापन हेतु, लोगों का बडी संख्या मे, शहरो को पलायन। उत्तराखंड के छोटे-छोटे गांवो व कस्बो के इर्द-गिर्द के जंगलो का, निरंतर बेरहमी से सफाया कर, शहरीकरण को बल देने के फलस्वरूप, प्रकृति के हुए भारी विनाश तथा देश-विदेश मे प्रवासरत, उत्तराखंड के प्रवासियों की नई पीढ़ी का, अपनी स्मृद्ध परम्पराओं से बढ़ते अलगाव के क्रम मे, प्रकृति से जुड़े उत्तराखंड के ‘फूलदेई’ लोकपर्व सहित अनेको तीज-त्योहारो पर भी, प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

ऐसे में सुखद लगता है, उत्तराखंड के प्रवासी बंधुओ द्वारा, दिल्ली प्रवास मे गठित संस्थाओ द्वारा, सामूहिक रूप से, उत्तराखंड के पारंपरिक तीज-त्योहारों से जुडे कार्यक्रमो को, अपने प्रवासी जनसमाज के मध्य, भव्य आयोजन कर, उनका प्रचार-प्रसार, संरक्षण व संवर्धन कर, अपनी पारंपरिक लोकसंस्कृति की परिपाठी को, अपनी सांस्कृतिक पहचान हेतु, संजोए रखना।
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