अब पहले सा नजर नहीं आएगा दुगड्डा का धारा
प्राकृतिक जलस्रोत संरक्षण का बेहतर तरीका होना चाहिए
चुभ सी रही है टाइल्स से बनायी गयी दीवार और लोहे के पाइप
विश्व जल दिवस पर विशेष
आज विश्व जल दिवस है। और आज मैं फिर उदास सा हूं। नौ मार्च को कोटद्वार से सतपुली जाते हुए दुगड्डा पर रुका तो दिल धक से रह गया। चूनाधारे के पास जो प्राकृतिक जलस्रोत था, उसे नया रूप दिया जा रहा है। टाइल्स और लोहे के पाइप के सहारे इस धारे के जल को संरक्षित किया जा रहा है। मैं कह नहीं सकता कि यह सही है या गलत। पर मुझे यह तरीका भाया नहीं। दुगड्डा के इस धारे से मुझ समेत पलायन कर चुके हजारों लोगों की यादें निश्चित तौर पर जुड़ी होंगी। बचपन में गर्मियों की छुट्टी खत्म होने के बाद जब दिल्ली जाना होता था तो जीएमओ की बसें इस धारा पर रुकते। लोग उतरते हो काई लगे पत्थर से आ रहे ठंडे और मीठे पानी को जी-भर पीते। सिर को भिगोते और सोचते न जाने फिर कब आना हो।
मेरा मानना है कि यह केवल जलधारा नहीं है। स्मृतियों का खजाना है। मैं अक्सर अपने बच्चों को आज भी कहता हूं कि गुमखाल की हवा एक लाख रुपये की और दुगड्डा का पानी 50 हजार रुपये लीटर। इस बार जब दुगड्डा के इस धारे को देखा तो मन उदास सा हो गया। लगा कि कुछ छूट रहा है। यह संभवतः पहली बार होगा कि मैंने इस धारे से पानी नहीं पिया। नया रूप इस तरह का होगा, सोचा न था।
मुझे लगता है कि हमारे प्राचीन जलस्रोतों का संरक्षण तो हो लेकिन ऐसा कि उसका प्राकृतिक स्वरूप बना रहे। इसके लिए व्यापक नीति बने। उनके मूल स्वरूप के साथ अधिक छेड़छाड़ न हो। पहाड़ों में कई अन्य धाराओं को ग्रामीणों ने संरक्षित रखा है। जैसे डिग्गी बनाकर, शेर का मुंह बनाकर आदि-आदि। हम अपने सांस्कृतिक स्वरूप को यदि कुछ समय और बचा कर रख सकें तो अच्छा है। हो सकता है कि इस धारे को लेकर मंथन हुआ हो और मैं गलत हूं, लेकिन सच में ऐसा लगा कि इस धारे से मेरा जो चार दशक का रिश्ता था, उसमें कुछ कमी आई है।