जनादेश का मखौल, लोकतंत्र की हार

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जनादेश का मखौल, लोकतंत्र की हार

योगेश भट्ट

त्रिवेंद्र सिंह रावत की मुख्यमंत्री पद से विदाई के साथ ही उत्तराखंड के सियासी इतिहास में एक ‘काला अध्याय’ और दर्ज हो चुका है। समय इसका साक्षी बना कि किस तरह प्रचंड जनादेश के बावजूद उत्तराखंड एक बार फिर से सियासी अस्थिरता का शिकार हुआ। इस बार राज्य के सुधी मतदाताओं ने जनादेश का मखौल उड़ते देखा तो आम जनता ने फिर से सियासतदांओं के सत्ता संघर्ष में लोकतंत्र को परास्त होते देखा।
इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है कि न मुख्यमंत्री बनाने में विधायकों की राय ली जाती है, न हटाने में। अंततः चार साल बाद मुख्यमंत्री को इसलिए हटा दिया गया कि मंत्री और विधायक मुख्यमंत्री की कार्यशैली से खुश नहीं थे।
आश्चर्यजनक तो यह है कि 70 विधायकों के सदन में 57 विधायकों के साथ सरकार बनाने वाली पार्टी को इनमें से कोई भी विधायक मुख्यमंत्री बनने के काबिल नजर नहीं आया। अंदरूनी सियासत इतनी हावी रही कि राज्य को उपचुनाव में झौंकने से भी परहेज नहीं किया गया। पूरे घटनाक्रम में सवाल त्रिवेंद्र के हटने और तीरथ की ताजपोशी का नहीं है।
सवाल लोकतंत्र में उस ‘लोक’ का है जिसे हाशिए पर धकेल दिया गया, जिसकी राजनैतिक दलों की नजर में कोई हैसियत नहीं रह गई है। त्रिवेंद्र तो पहले ही दिन से मुख्यमंत्री पद के लिए विधायकों की पसंद नहीं थे। त्रिवेंद्र कोई बड़े जनाधार वाले नेता भी नहीं थे, वह तो हाईकमान की पसंद थे और उन्हीं की कृपा पर मुख्यमंत्री बने।
त्रिवेंद्र को यह अच्छे से मालूम था इसलिए पहले दिन से वह किसी के दबाव में भी नहीं रहे। उन्होंने न विधायकों को साधे रखने की कोशिश की न मंत्रियों को। मंत्रिमंडल भी पूरा गठित नहीं किया और आधे से अधिक महकमे भी अपने ही पास रखे। यही कारण भी था कि पहले साल से त्रिवेंद्र के खिलाफ एक माहौल तैयार होना शुरू हो गया था।
त्रिवेंद्र का हटना अप्रत्याशित नहीं था, सियासी गलियारों में इसकी चर्चा पिछले दो साल से चल रही थी। देहरादून से लेकर दिल्ली तक त्रिवेंद्र के सियासी और व्यक्तिगत विरोधी तो खुलेआम यह कहते घूमते थे कि त्रिवेंद्र जल्द ही हट जाएंगे, कुछ दिन इंतजार करो नया मुख्यमंत्री आने वाला है। अप्रत्याशित तो वह घटनाक्रम और परिस्थतियां रहीं जिनमें त्रिवेंद्र को हटाया गया।
अप्रत्याशित था, सियासत के फेर में राज्य के हितों की अनेदखी किया जाना।त्रिवेंद्र की मुख्यमंत्री पद से विदाई ऐसे वक्त में हुई जब वह अपने चार साल का कार्यकाल पूरा करने पर जश्न की तैयारी में थे। चार साल में ‘बातें कम और काम ज्यादा’ का स्लोगन लेकर वह जनता के बीच सरकार की उपलब्धियों का प्रचार कर रहे थे।
चार साल के कामकाज के प्रचार के लिए करोड़ों रूपया पानी की तरह बहाया जा चुका था, प्रदेश के कोने-कोने में त्रिवेंद्र की ‘ब्रांडिंग’ हो रही थी। पार्टी के भीतर उनके सियासी विरोधी भी बयान जारी कर रहे थे कि अगला चुनाव त्रिवेंद्र के नेतृत्व में होगा। अब तो त्रिवेंद्र खुद भी रौ में आ चुके थे, समीक्षाएं, घोषणाएं, दौरे, बैठकों और जनसभाओं का सिलसिला शुरू हो चुका था।
अप्रत्याशित यह भी था कि अपने सियासी और व्यक्तिगत विरोधियों के मंसूबों को शिकस्त देते आ रहे त्रिवेंद्र की विदाई गैरसैंण की उसी पिच पर हुई जिस पर वह पिछले दो साल से इतिहास रचते आ रहे थे। गैरसैंण में बजट सत्र चल रहा था, सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी। सरकारी प्रवक्ता दावा कर चुके थे कि अगले दो महीने तक सरकार गैरसैंण से ही चलेगी। बतौर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र अल्मोड़ा, बागेश्वर, चमोली और रुद्रप्रयाग जिलों को मिलाकर गैरसैंण को नई प्रशासनिक कमिश्नरी बनाने की घोषणा कर चुके थे।
इस घोषणा को त्रिवेंद्र समर्थकों ने गैरसैण पर छक्का करार दिया ही था कि यह घोषणा उनके लिए हिट विकेट साबित हो गई। इस घोषणा के दूसरे ही दिन त्रिवेंद्र समेत पूरी सरकार को ग्रीष्मकालीन राजधानी में चल रहे बीच विधानसत्र से हाईकमान के दूतों ने देहरादून तलब कर लिया था। फिर लगभग पांच दिन तक देहरादून से दिल्ली तक चले सियासी ड्रामे के बाद त्रिवेंद्र को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया।
लोकतंत्र के लिहाज से देखा जाए तो त्रिवेंद्र को हटाने से लेकर तीरथ की ताजपोशी तक का पूरा घटनाक्रम बेहद शर्मनाक रहा। हकीकत यह है कि नेतृत्व परिवर्तन का यह मसला पूरी तरह भाजपा की अंदरूनी सियासत और गुटबाजी का नतीजा था, मगर जबरन इसमें राज्य और राज्य की पूरी व्यवस्था को सलीब पर लटका दिया गया।
आखिर कौन से ऐसा पहाड़ टूटा जा रहा था जो कि चार साल तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाए रखने वाला हाईकमान उन्हें नौ दिन और मुख्यमंत्री बर्दाश्त नहीं कर पाया? जहां त्रिवेंद्र को इतना वक्त दिया गया वहां चार साल पूरे करने के लिए 18 मार्च तक का समय क्यों नहीं दिया गया?
यह त्रिवेंद्र के लिए नहीं, प्रदेश के लिए जरूरी था, मोटे आंकलन के मुताबिक सरकार पंद्रह करोड़ रुपये से अधिक रकम चार साल पूरे होने के मौके पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों की तैयारियों और उनके प्रचार-प्रसार पर खर्च कर चुकी है। पोस्टर होर्डिंग्स के अलावा बड़े पैमाने पर प्रचार सामग्री प्रकाशित की जा चुकी है। जाहिर है अब नए मुख्यमंत्री के नाम से यह सब नए सिरे से किया जाएगा, मौज फिर कारोबारियों, कमीशनखोर अफसरों और बिचैलियों की होगी और नुकसान सिर्फ राज्य का होगा।
भाजपा हाईकमान अगर राज्य के प्रति संवेदनशील होता तो इस पर विचार करता, लेकिन भाजपा हाईकमान की प्राथमिकता तो अंदरूनी सियासत थी। भाजपा हाईकमान अगर संवदेनशील होता तो पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैण में चल रहे बजट सत्र के बीच में विघ्न नहीं डालता। जब यह तय था कि सरकार अगले दो माह तक यहीं से कामकाज चलाएगी तो सरकार को देहरादून तलब करने के बजाय हाईकमान के दूत गैरसैण पहुंचते।
क्या भाजपा हाईकमान को नहीं मालूम रहा होगा कि राज्य विधानसभा का अहम बजट सत्र चल रहा है, सरकार की ओर से बजट पेश किया जा चुका है और उस पर चर्चा शुरू होनी है ?
अप्रत्याशित तो यह है कि जनता के मुददों को गैरसैंण में हाशिए पर छोड़ पूरी सरकार देहरादून उतर आयी। इसके बाद लावारिस से गैरसैंण में बजट पास करने की सिर्फ रस्म अदायगी हुई। सही मायनों में तो यह सिर्फ व्यवस्था का ही असम्मान नहीं बल्कि गैरसैंण का भी अपमान था।
यहां यह स्पष्ट होना जरूरी है कि क्या त्रिवेंद्र वाकई इतना बड़ा मुददा थे कि जिसके लिए राज्य में चल रही विधायी प्रक्रिया की अनदेखी कर दी गई? जनता के करोड़ों रुपये बरबाद होने की भी परवाह नहीं की गई। यह सही है कि एक बड़े जनाधार वाली सरकार से जिस तेजी की अपेक्षा थी उस पर त्रिवेंद्र सरकार खरी नहीं उतरी।
त्रिवेंद्र सरकार सुस्त थी, प्रदेश के भविष्य को लेकर उसका दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं था। राज्य हित में फैसले लेने के लिए मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति त्रिवेंद्र सरकार में नहीं थी, जो फैसले लिए भी गए उनमें दूरदर्शिता नहीं थी। मगर यह भी सच है कि राज्य में पिछली सरकारों की तरह लूट नहीं थी।
यह सच है कि त्रिवेंद्र के राज में पूरा सिस्टम सिर्फ दो नौकरशाहों की गिरफ्त में था। त्रिवेंद्र का अपना व्यक्तित्व भी बहुत प्रभावशाली और व्यवहारिक नहीं था। उनके चार साल के कार्यकाल में कोई बड़ा बदलाव सिस्टम में नहीं आया, न कार्य संस्कृति बदली और न राज्य को लेकर राजनैतिक और प्रशासनिक नेतृत्व का नजरिया ही बदला।
नियोजन और विकास के लिहाज से भी कोई उल्लेखनीय काम प्रदेश में नहीं हुआ। चुनाव के वक्त किए सौ दिन के वायदे भी वे पूरे नहीं कर पाए। मगर यह भी सच है कि चार साल में त्रिवेंद्र ने निकायों से लेकर लोकसभा तक हर चुनाव में अव्वल नतीजे दिए।
इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि केंद्र की ऑल वेदर सड़क परियोजना, ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल परियोजना, अटल आयुष्मान योजना के अलावा ऐसा गिनाने के लिए कुछ भी नहीं है जो उन्होंने अपने दम पर शुरू किया हो।
राज्य की रिस्पना और कोसी नदियों को पुनर्जीवित करने का वादा भी पूरा नहीं हुआ। राज्य के साधन, संसाधन बढ़ाने की दिशा में भी कुछ नहीं हुआ, कर्ज का मर्ज लगातार बढ़ता रहा। विकास दर तो घटी ही रोजगार की संभावनाएं भी लगातार कम होती चली गईं। इसके बावजूद त्रिवेंद्र ने आर्थिक संतुलन बनाए रखा।
यह सही है कि महीनों तक धरने पर बैठे रहे 108 सेवा से हटाए गए सैकड़ों युवाओं को वे न्याय नहीं दिला पाए। चारधाम देवस्थानम बोर्ड पर उन्होंने तीर्थ पुरोहितों की नाराजगी मोल ली।
राज्य के भू-कानून में संशोधन कर खरीद-फरोख्त की सीमा समाप्त करना और पंचायत अधिनियम में संशोधन कर दो से अधिक बच्चों वालों को पंचायत चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराए जाने जैसे निर्णयों पर भी वे कटघरे में रहे। इसमें कोई दोराय नहीं कि ‘जीरो टॉलरेंस’ और ‘डबल इंजन सरकार’ महज जुमले साबित हुए हैं मगर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके कार्यकाल में दूसरी सरकारों के कार्यकाल की तरह चोर दरवाजे से नियुक्तियां नहीं हुई, ट्रांसफर-पोस्टिंग का उद्योग नहीं चला।
आमजन में त्रिवेंद्र लोकप्रिय नहीं हुए यह भी सौ फीसदी सही है, मगर इनमें एक भी मुद्दा ऐसा नहीं था जिस पर उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़े। जहां तक नाराजगी का सवाल है तो आमजन में नाराजगी सरकार से थी त्रिवेंद्र से नहीं, त्रिवेंद्र से नाराजगी या तो उनकी थी जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पाना चाहते थे या फिर उन सफेदपोशों, नौकरशाहों, ठेकेदारों और पत्रकारों को थी जिनके मंसूबे इस सरकार में पूरे नहीं हुए।
यह भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही लगातार त्रिवेंद्र पर कभी उनके करीबियों के स्टिंग के जरिए तो कभी विभिन्न आरोपों के जरिए लगातार व्यक्तिगत हमले होते रहे। मगर यह भी सच है कि त्रिवेंद्र की टीम बहुत मजबूत और भरोसेमंद नहीं थी। उनके सलाहकार, व्यवस्थापक और प्रबंधक काबिल नहीं थे। उनके अधिकांश सलाहकार तो मुख्यमंत्री के आंख, नाक, कान बन कर काम करने के बजाय अपने ‘धंधे’ मजबूत कर रहे थे।
जिनका काम मुख्यमंत्री को सही फीड बैक देने और उनकी छवि बनाने का है वही उनकी छवि को पलीता लगा रहे थे। इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि त्रिवेंद्र पहले दिन से जनता या निवार्चित विधायकों की पसंद के मुख्यमंत्री नहीं थे। वह भी नए मुख्यमंत्री की तरह पार्टी हाईकमान की ओर से ‘थोपे’ गए मुख्यमंत्री थे। इसलिए उनका हटना कोई खास मायने भी नहीं रखता।
मायने अगर हैं तो इसके कि बदलाव के बाद क्या सियासी संग्राम खत्म हो जाएगा? क्या गारंटी है कि असंतोष और अस्थिरता नए मुख्यमंत्री की राह का रोढ़ा नहीं बनेगी?
असल सवाल त्रिवेंद्र के हटने या बने रहने का नहीं है, सवाल नजरिए का है।
सवाल यह है कि एक प्रचंड बहुमत की सरकार में भी पूरी सियासत अगर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक ही सिमट कर रह जाए तो इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है? सवाल यह समझने का है कि बार बार नेतृत्व परिवर्तन का नुकसान सिर्फ राज्य को ही नहीं, राजनैतिक दलों को भी उठाना पड़ा है।
उत्तराखंड में 20 साल में 11 बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ मगर हर बार हासिल पाया सिफर। इतिहास गवाह है कि नेतृत्व परिवर्तन भाजपा ही नहीं कांग्रेस को भी रास नहीं आया।भाजपा अंतरिम सरकार से लेकर तीन बार सत्ता में रही और इस दौरान चार बार भाजपा ने नेतृत्व परिवर्तन किया।
अंतरिम सरकार में नित्यानंद स्वामी को हटाकर भगत सिंह कोश्यारी, दूसरी निर्वाचित सरकार में दो साल बाद भुवन चंद्र खंडूरी को हटकार रमेश पोखरियाल निशंक और फिर दो साल बाद निशंक को हटाकर फिर से भुवन चंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया गया। चौथी निर्वाचित सरकार में जब भाजपा फिर सत्ता में आई तो पहले त्रिवेंद्र को मुख्यमंत्री बनाया गया और अब चार साल पूरे होने से पहले ही उनकी जगह तीरथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया।
सवाल त्रिवेंद्र और तीरथ का नहीं, सवाल उस लोकतंत्र का है जिसमें ‘लोक’ हाशिए पर धकेल दिया गया। सवाल उस जनादेश का है जिसने 70 में से भाजपा को 57 विधायक दिए। यह प्रचंड जनादेश ठाकुर या ब्राह्मण समीकरणों पर नहीं मिला, यह इसलिए भी नहीं मिला कि मुख्यमंत्री गढ़वाल या कुमाऊं से, ब्राह्मण या ठाकुर विशेष को ही बनाया जाए।
यह जनादेश तो राजनैतिक अस्थिरता को खत्म करने के लिए मिला था, यह जनादेश राज्य हित में बड़े फैसलों के लिए था। आज त्रिवेंद्र गए, तीरथ आए, क्या फर्क पड़ता है? तीरथ बहुत भले हैं तो व्यक्तिगत बुरे त्रिवेंद्र भी नहीं हैं, मगर सच यह है कि तीरथ को भी थोपा ही गया है। दिलचस्प यह है कि पूरे खेल में जीत तो किसी की नहीं हुई हां लोकतंत्र की हार जरूर हुई।
आखिर यह कैसा लोकतंत्र है ? त्रिवेंद्र को हटाया गया तो क्या बाकी 56 विधायकों में कोई ऐसा काबिल नहीं था जिसे मुख्यमंत्री बनाया जाता ? यह क्या बात हुई कि सरकार बनाए जनता और मुख्यमंत्री तय करे पार्टी हाईकमान !
जरूरत नेतृत्व परिवर्तन की नहीं थी। नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं राजनैतिक अस्थिरता पैदा करती हैं और राजनैतिक अस्थिरता राजकाज में अराजकता। नतीजा सामने है, राजनैतिक अस्थिरता में न तो व्यापक हितों की नीतियां बनती हैं न दूरगामी निर्णय होते हैं। जरूरत उस नजरिए को बदलने की जिसमें राजनेता और नौकरशाह राज्य को सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने संसाधन मान बैठे हैं।
अब देखिए नए चुनाव के लिए साल भर का समय भी नहीं रहा गया है। किसी भी मुख्यमंत्री के लिए साल भर का समय कुछ भी नहीं होता। नए मुख्यमंत्री को शुभकामनाएं हैं कि वह आसन्न चुनौतियों का डटकर मुकाबला कर पाएं। वाकई त्रिवेंद्र ने बिगाड़ा है तो तीरथ के सामने उसे सुधारने की बड़ी चुनौती है। निसंदेह कई मोर्चों पर उन्हें नए सिरे से इबारत लिखनी होगी। कुल मिलाकर जनादेश का मखौल तो उड़ा है पर देखना यह होगा कि तीरथ अंदरूनी सियासत से पार पा पाएंगे या नहीं ।