लोकप्रिय थी उत्तराखंड में बेरीनाग की चाय

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लोकप्रिय थी उत्तराखंड में बेरीनाग की चाय

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

पूर्वोत्तर राज्यों की भांति उत्तराखंड के चाय बागान भी पर्यटन के जरिये राज्य की झोली भरेंगे। सरोवरनगरी नैनीताल के भवाली में यह प्रयोग सफल रहने के बाद अब इसे विस्तार दिया जा रहा है। कौसानी और अल्मोड़ा के चाय बागानों को टी-टूरिज्म के तौर पर विकसित किया जा रहा है। इसकी कवायद तेज की गई है। प्रयास ये है कि इन बागानों में नए वित्तीय वर्ष से टी-टूरिज्म की गतिविधियां प्रारंभ हो जाएं। इसके साथ ही उत्तराखंड के चाय बागानों में फिल्म शूटिंग के मद्देनजर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री से भी संपर्क साधने की तैयारी है।असोम समेत अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में चाय उत्पादन वहां की आर्थिकी का महत्वपूर्ण जरिया है। न सिर्फ चाय उत्पादन बल्कि चाय बागानों की सैर और फिल्म शूटिंग के जरिये भी इन राज्यों को अच्छी आमदनी हो रही तो वहां रोजगार के अवसर भी बढ़े हैं। इस सबको देखते हुए उत्तराखंड ने भी इस माडल को यहां लागू करने का निश्चय किया। इसी के तहत चाय बागानों की सेहत संवारने के साथ ही इन्हें पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जा रहा है। इस कड़ी में उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड ने तीन साल पहले नैनीताल के भवाली स्थित चाय बागान में टी-टूरिज्म की पहल की। 15 हेक्टेयर के इस बागान के लिए पर्यटक सोसायटी गठित की गई। साथ ही ट्रैक का निर्माण, कैफे, पर्यटकों के लिए हट, फोटोग्राफी, सोवेनियर शाप, सुलभ शौचालय जैसी सुविधाएं विकसित की गईं। बोर्ड के निदेशक के अनुसार इसके बेहतर नतीजे आए। पिछले वित्तीय वर्ष में बागान को पर्यटन से 42 लाख रुपये की आय हुई। कोरोना संकट के बावजूद इस वित्तीय वर्ष में अब तक करीब पांच लाख की आय हो चुकी है। साथ ही सैलानी चाय बागान के साथ ही ग्रीन,ब्लैक टी के बारे में जानकारी ले रहे हैं। निदेशक के अनुसार अब यही प्रयोग कौसानी और चंपावत के चाय बागानों में धरातल पर उतारा जा रहा है। 35 हेक्टेयर में फैले कौसानी चाय बागान में पर्यटन से संबंधित व्यवस्थाएं जुटाने का काम अंतिम चरण में है। इसके अलावा चंपावत में सिलिंगडांग स्थित चाय बागान के लिए 1.05 करोड़ रुपये की राशि अवमुक्त हो चुकी है। इन दोनों बागानों में भी इसी वित्तीय वर्ष से टी-टूरिज्म की गतिविधियां शुरू हो जाएंगी। उन्होंने कहा कि इस पहल को धीरे-धीरे अन्य चाय बागानों में भी आकार दिया जाएगा। आज प्रदेश के 9 जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, पिथौरागढ़, पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी में चाय की खेती को विकसित कर रहा है। जिससे किसानों को बहुत फायदा हो रहा है। इसके साथ ही पर्यटन के क्षेत्र को भी इससे बढ़ावा मिल रहा है, क्योंकि बड़ी तादाद में लोग चाय की खेती को हरियाली की वजह से देखने भी आते हैं।अतीत में अपने स्वाद और अलग महक को लेकर विदेशों में धाक जमा चुकी चौकोड़ी बेरीनाग की चाय सात समंदर पार इंग्लैंडवासियों को ताजगी देती थी। अपनों ने चाय के बागानों पर ऐसा जुल्म ढाया कि बागान की हरियाली को कंक्रीट के जंगल में तब्दील कर दिया है।विदेशी हुक्मरानों ने चौकोड़ी और बेरीनाग की जलवायु को देखते हुए 19वीं शताब्दी में यहां पर चाय के बागान विकसित किए। प्रथम चरण में अंग्रेजों ने चीन से चाय के पौध मंगाकर विकसित किया। अनुकूल जलवायु के चलते चाय के पौध विकसित होने लगे। इन चाय के पौध की महक लंदन तक पहुंच गई। जिस पर वर्ष 1886 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसका नीलामी की गई। हिल एक्टेंशन नामक एक अंग्रेज ने बेरीनाग को चाय के अनुरूप होने का प्रस्ताव बिटिश सरकार के सम्मुख रखा। इस पर बेरीनाग की 200 एकड़ जमीन चाय बागान के लिए स्वीकृत हुई थी। वर्ष 1864 में इस प्रस्ताव को अनुमोदित कर खितोली, सांगड़, बना, भट्टीगांव, ढनौली में भूमि चाय बागान के लिए आवंटित की गई। हिल एक्टेंसन ने चौकोड़ी और बेरीनाग में चाय के बागान लगवाए। बीसवीं सदी के प्रारंभ में मेजर आर ब्लेयर ने चौकोड़ी और बेरीनाग चाय बागान का चार्ज लिया। उस दौरान चाय का अच्छा उत्पादन नहीं होने पर जार्ज बिलियट ने टी स्टेट खरीद लिया। बिलियट ने भी 1916 में टी स्टेट जिम कार्बेट को सौंप दिया। अपने घूमंतू स्वभाव के चलते कार्बेट अधिक समय तक टी स्टेट की जिम्मेदारी नहीं निभा सके उन्होंने मुरलीधर पंत को टी स्टेट सौंप दिया। पंत भी इस जिम्मेदारी को नहीं निभा सके। उन्होंने तत्कालीन कुमाऊं के सबसे बड़े उद्योगपति दान सिंह बिष्ट मालदार को टी स्टेट बेच दिया। मालदार के हाथों में टी स्टेट आते ही यहां पर एक बार फिर चाय का उत्पादन व्यापक रूप से होने लगा। बेरीनाग और चौकोड़ी में चाय के कारखाने लगाए गए। यहां तैयार चाय विदेशों तक जाने लगी। मालदार के बाद बागान जिन लोगों के हाथ लगे उन्होंने इनका समुचित ढंग से रखरखाव नहीं किया। चौकोड़ी और बेरीनाग की चाय दार्जिलिंग की चाय के समकक्ष थी। इसका फ्लेवर विशेष था जो अंग्रेजों को खूब पसंद आता था। अंग्रेजों की रुचि को देखते हुए ही यहां पर अंतरराष्ट्रीय स्तर की पीको फ्लावरी, विटोको स्पेशल, पीको स्पेशल ब्रांड तैयार किए जाते थे। इसके लिए मशीनें लगी थी और क्षेत्र के पांच सौ से अधिक लोगों को रोजगार मिलता था। अंग्रेजी शासनकाल में फले, फूले बागानों को बचाकर उन्हें विशिष्ट पहचान दी गई। अपनी सरकारें इसे लेकर बेहोश रही हैं। राज्य में आज चाय उत्पादन की बातें तो खूब प्रचारित की जाती है। अपने विशिष्ट स्वाद और सुगंध के कारण 1960 के दशक तक लंदन, कोलकाता और चीन के चाय बाजारों पर राज करने वाली बेरीनाग चाय को युवा उद्यमियों के एक समूह ने पुनर्जीवित कर दिया है । एक अधिकारी ने कहा कि उद्यमियों ने जिले के बेरीनाग उप-मंडल में 8.7 हेक्टेयर निजी भूमि पर एक सहकारी संस्था के माध्यम से बेरीनाग चाय की पौध लगाई और एक वर्ष में लगभग 3500 किलोग्राम चाय की पत्ती उगाई । नौ नवंबर को राज्य स्थापना दिवस पर चाय ब्रांड के पैकेट लांच करने वाले जिला उद्योग केंद्र की महाप्रबंधक कविता भगत ने कहा, ‘’ यह एक अच्छी पहल है कि कुछ युवा उद्यमियों ने इस चाय ब्रांड को पुनर्जीवित किया है जिसने 1900 से 1964 तक लंदन, कोलकाता और चीन के चाय बाजारों पर राज किया था ।’’ इस ब्रांड को पुनर्जीवित करने वाली बेरीनाग के पांखू गांव में स्थित ‘पर्वतीय चे उत्पादक स्वयक्ता सहकारी समिति’ के अध्यक्ष ने बताया, ‘‘ हमने शुरुआत के लिए बाज़ार में आधे किलो के पैकेट लॉन्च किए हैं और खरीददारों की पसंद के आधार पर हम इसके उत्पादन और पैकेजिंग दोनों का विस्तार करेंगे।’’ उन्होंने कहा, “अगर लोग इस चाय को खरीदते हैं तो हमारी अगले साल तक 15,000 किलोग्राम बेरीनाग चाय की पत्तियों का उत्पादन करने की योजना होगी ।’’अध्यक्ष ने बताया कि केंद्र की एमएसएमई योजना के तहत बैंकों से वित्तीय सहायता प्राप्त करने के बाद इसका उत्पादन शुरू किया गया। उन्होंने कहा कि क्षेत्र के किसान चाय की पत्तियों का उत्पादन करने के लिए अपनी जमीन देने के लिए तैयार हैं क्योंकि उनकी अन्य फसलें जंगली जानवरों द्वारा नष्ट की जा रही हैं । क्षेत्र के छह गांवों ने अब तक चाय उत्पादन के लिए अपनी जमीन दी है और निकट भविष्य में कुछ और गांव आगे आ सकते हैं। चाय बोर्ड के एक अधिकारी ने कहा, ‘’यह राज्य की पहली सहकारी समिति है जिसने राज्य में चाय की पत्तियों का उत्पादन शुरू किया है।’’ बेरीनाग चाय आसानी से किसी भी नीलामी में 1500 से 2000 प्रति किलोग्राम की कीमत प्राप्त कर सकती है। 1847 में गढ़वाल में 18 एकड़ इलाके में चाय के बागान थे. यहाँ ग्वालदम में सबसे बड़ा चाय का बागान चौदह किलोमीटर के विस्तृत क्षेत्र में था. 1850 में चाय बागानों की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने गढ़वाल में एक चीनी चाय विशेषज्ञ ऐसाई वांग की सेवाएं प्राप्त कीं. पौड़ी गढ़वाल में एक चीनी काश्तकार डी ए चौफ़िन ने पौड़ी के समीप चाय की फैक्ट्री लगायी गई.गढ़वाल में अलकनंदा जलागम क्षेत्र में चाय की खेती आरम्भ होने से उत्पादन काफी बढ़ा. 1859 तक गढ़वाल में चाय बागानों का क्षेत्र बढ़ कर 350 एकड़ हो गया था. 1880 तक यहाँ 10,937एकड़ इलाके में 63 चाय के बागान फैल चुके थे. वालटन के लेख स्पष्ट करते हैं कि 1897 तक संयुक्त गढ़वाल के क्षेत्र में 25 क्विंटल से अधिक चाय का उत्पादन बढ़ा. कुल उत्पादन 17,10,000 पोंड तक बढ़ चुका था.1884 में काठगोदाम और बरेली के बीच रेल सेवा की भी शुरुवात हो चुकी थी जिससे पहाड़ में उत्पादित परंपरागत कृषि व उद्यान पदार्थों को बाहर भेजने में सुविधा बढ़ी. ब्रिटिश नागरिकों ने रामगढ़ भीमताल,घोड़ाखाल, व भवाली में न्यूटन व मुलियन के जो बागान लगाये थे उनमें चाय के उत्पादन में कुछ कमी देखी जाने लगी थी इसका कारण यह था कि पहाड़ में होने वाले फलों के बागान अब उत्पादन करने लगे थे. बाजार में भी फलों की अधिक मांग थी और इनकी कीमत भी अच्छी मिल रही थी. फल उत्पादन में चाय बागान की तुलना में अधिक मुनाफा देख चाय बागान पर किए विनियोग की धनराशि कम होने लगी. 1867 में देहरादून के पास का कौलगीर का सरकारी बागान जो 400 एकड़ क्षेत्र तक फैला था, सिरमौर के राजा को बेच दिया गया. अब सरकार यह चाहती थी कि चाय बागानों का विकास निजी क्षेत्र में हो. भारत तिब्बत व्यापार में भी कुमाऊँ की चाय बढ़िया होने कारण तिब्बत में बहुत ही ऊँचे मार्जिन पर बेची जाती थी पर यह मुनाफा तिब्बती व्यापारी के पास जाता था इस कारण कुमाऊँ की चाय को पश्चिमी तिब्बत निर्यात करने में सरकार ने अधिक प्रतिमान नहीं दिया.सन 1900 की शुरुवात तक डिप्टी कमिश्नर ऑफिस की पत्रावलियां यह दर्शाने लगीं थीं की चाय के बागानों में अब चाय का उत्पादन गिरते हुए पैमाने पर होने लगा है चाय बोर्ड के नाम पर नेता मंत्री बन जाते हैं परंतु चाय उत्पादन में अग्रणी बेरीनाग और चौकोड़ी अभी चाय उत्पादन क्षेत्र की सूची में तक शामिल नहीं हो सके हैं। बेरीनाग की चाय, बुरांस के शरबत को भी जल्द ही भौगोलिक संकेतांक यानि जीआई टैग मिल सकता है। इनके साथ ही नौ और उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए सरकार जीआई टैग दिलाने की तैयारी कर रही है। अब तक राज्य के आठ उत्पादों को जीआई टैग हासिल हो चुका है.