बातें कम, काम ज्यादा’ के प्रचार स्लोगन!

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बातें कम, काम ज्यादा’ के प्रचार स्लोगन!

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड सरकार ने अपने चिर परिचित स्लोगन ‘बातें कम, काम ज्यादा’ के नारे के प्रचार प्रसार के लिए राज्य के सभी 70 विधानसभा क्षेत्रों में मेले लगाने के निर्देश दिए हैं। इसके लिए 8.40 करोड़ रुपये की राशि जारी की गई है। जो प्रति विधानसभा करीब 12.12 लाख रुपये बनते हैं।2017 में 70 सीट वाली विधानसभा में 57 का विशाल बहुमत लेकर आई भाजपा राज्य सरकार ने एक स्लोगन दिया-‘बातें कम, काम ज्यादा’। इसी स्लोगन को फलीभूत करने के लिए सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में मेले लगाने का निर्णय लिया है। इसके लिए प्रत्येक विधानसभा को करीब 12 लाख रुपये मिले हैं। इस धनराशि का उपयोग मेले में लगने वाले टेंट, फर्नीचर, विद्युत, साउंड, परिवहन, जलपान व प्रचार-प्रसार एवं प्रकाशन पर किया जाएगा।सरकार के इस निर्णय पर विपक्ष ने सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। पूछा जा रहा है कि यदि सरकार ने कोई काम किया ही नहीं तो मेलों के जरिये किसका प्रचार किया जाएगा। भाजपा सरकार ने ‘बातें कम, काम ज्यादा’ और ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टोलरेंस’ जैसे दो नारों के साथ काम करना शुरू किया था। ये दो नारों पर भाजपा सरकार की परफारमेंस क्या रही, इसको परखने का समय आ गया है। राज्य में जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं, इन सवालों पर जनता नंबर देगी और नतीजे सामने होंगे।राज्य में कोरोना संक्रमण का तीसरा दौर चल रहा है। कोरोना संक्रमण दिन प्रतिदिन तेज गति से बढ़ रहा है। इस माहौल में प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में भीड़ जुटाकर मेले आयोजन को लेकर भी विपक्ष की तरफ से आवाज उठ रही है। लेकिन जब चुनाव सामने हों तो किसी को किसी की आलोचना की चिंता कहां होती है। उत्तराखण्ड की 21 सालों के जीवन काल पर गौर करें तो राज्य की राजनीति कुर्सी के लिये जोतोड़, सरकार बनाने और गिराने तक ही समित नजर आती है। राजनीतिक उठापटक के बाद जो थोड़ा बहुत समय मिलता है वह घोटालों और सत्ता की बंदरबांट में ही निकल जाता है। राजनीतिक में पदलोलुपता, अवसरवादिता और सिद्धान्तहीनता के कारण उत्तराखण्ड देश के पांच सर्वाधिक राजनीतिक असिथरता वाले राज्यों में शामिल हो गया है। इस राज्य में मुख्यमंत्रियों का औसत कार्यकाल 2 साल है लेकिन भाजपा के मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल डेढ साल से भी कम है। इन पांच राज्यों में भी उत्तराखण्ड के अलावा उत्तर प्रदेश और कर्नाटक भाजपा शासित हैं जबकि बिहार में वह नीतीश कुमार के साथ साझीदार है। इनके अलावा झारखण्ड में भी मुख्यमंत्रियों का औसत कार्यकाल 1.4 साल है। मजेदार बात तो यह है कि राजनीतिक अस्थिरता के लिये चर्चित रहे गोवा और अरुणाचल भी अब स्थिरता के दौर में आ चुके हैं। उसके बाद 2017 में भाजपा को बहुमत मिला तो त्रिवेन्द्र रावत को मुख्यमंत्री बना दिया उनके खिलाफ शुरू के दिन से पार्टी में असन्तोष चल रहा था। अन्ततः 10 मार्च 2021 को उनके स्थान पर सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया। लेकिन उनकी चुनाव जीतने की संभावना तो रही दूर चुनाव लड़ने की संभावना भी क्षीण हो गयी तो मात्र 116 दिन के अंदर भाजपा ने उन्हें हटा कर खटीमा के विधायक की मुख्यमंत्री के तौर पर ताजपोशी कर दी। अब चुनाव से पहले धामी केवल अपने माह के कार्यकाल का हिसाब दे रहे हैं। लेकिन शेष साढ़े चार साल का हिसाब किसी के पास नहीं है। अगर राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहे राज्यों विधानसभाओं का कार्यकाल पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश विधानसभा का औसत कार्यकाल 4.1 वर्ष, झारखण्ड का 4.5 वर्ष, बिहार का 4.3 वर्ष और कर्नाटक का 4.7 वर्ष रहा। उत्तराखण्ड विधानसभा अपना कार्यकाल तो पूरा करती रही मगर नारायण दत्त तिवारी के अलावा कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। कांगेस ने कहा कि भाजपा सरकार को चुनाव से पूर्व बातें कम काम ज्यादा स्लोगन की याद आई। विकास कार्यों को बताने के लिए 12-12 लाख रुपये प्रत्येक विधानसभा में खर्च कर सरकार जनता के पैसों की बर्बादी कर रही है। भाजपा ने कार्य ही क्या किए हैं। जो वह जनता को बताएगी। भाजपा ने सिर्फ जनता को ठगने का कार्य किया है। जो कार्य किए हैं वह जनता को दिख रहा है। यह झूठा प्रोपेगेंडा रचने का क्या फायदा। कोविड-19 संबंधी दिशा-निर्देशों के मुताबिक यदि चुनाव कराए जाएं तो कोई दिक्कत नहीं है. रैलियों का आयोजन खतरनाक है. ये बंद होनी चाहिए यह सही बात है. दिन में रैली और रात में कर्फ्यू का कोई मतलब नहीं होता है. इससे तो कोई समाधान निकलने वाला नहीं है. इससे संक्रमण थोड़ा ही रुकने वाला है.  निर्वाचन आयोग तो बाद में पिक्चर में आएगा. जब चुनावों की घोषणा हो जाएगी और आचार संहिता लागू हो जाएगी. इससे पहले तो सरकार को कदम उठाने चाहिए. अभी तो सरकार के ही नियम कानून लागू हैं. रात में कर्फ्यू तो सरकार ने ही लगाया है. सरकार को चाहिए कि वह इन रैलियों के आयोजन पर रोक लगाए  निर्वाचन आयोग को इस पर गौर करना चाहिए तथा सरकार को इसमें सहयोग देना चाहिए. एक ही बार में सुरक्षा संबंधी सभी इंतजाम किए जा सकते हैं. यदि सरकार इसकी व्यवस्था कर दे तो कम से कम चरण या फिर एक या दो चरण में मतदान संपन्न हो सकता है चाहे वह मुद्रास्फीति हो, बेरोजगारी हो, या कोरोना वायरस टीकाकरण हो और यह सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी है कि वह विपक्ष की भावनाओं का सम्मान करे। कोरोना महामारी के बावजूद चुनावी रैलियां और रोड शो जारी हैं। इन रैलियों में भाग लेने वाले नेता और उनके समर्थक कोरोना फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं। स्कूल, कॉलेज और कार्यालयों में जब वर्चुअल रूप से कार्य हो सकता है, तो चुनावी रैलियां वर्चुअल क्यों नहीं हो सकतीं? चुनावी रैलियों और रोड शो में कोरोना प्रोटोकॉल के उल्लंघन पर चुनाव आयोग की चुप्पी सवालों के घेरे में है। रैलियों में भीड़ के आयोजन के लिए जिम्मेदार नेताओं से भारी जुर्माना वसूला जाना चाहिए।रैलियां सरकार व नेताओं की लापरवाही का नतीजा है। जिन राज्यों में कोई भी उम्मीदवार पहले अधिकतम 28 लाख रुपए चुनाव में खर्च कर सकता था अब वह 40 लाख कर सकेगा। इसके अलावा केंद्र शासित प्रदेशों की बात करें तो जो उम्मीदवार पहले 20 लाख रुपए खर्च करता था अब उसकी चुनावी खर्च की सीमा को बढ़ाकर 28 लाख कर दिया गया है।उम्मीदवारों के चुनावी खर्चे में आखरी बार बड़ी बढ़ोतरी 2014 में की गई थी। उसके बाद 2020 में भी इसमें 10 प्रतिशत की दोबारा वृद्धि की गई। साथ हु उसी वक्त केंद्रीय चुनाव आयोग ने एक कमेटी का गठन भी कर दिया था जिसका काम चुनाव में होने वाले खर्चे का अध्ययन करना था। इस कमेटी ने राजनीतिक दलों, मुख्य चुनाव अधिकारियों और चुनाव पर्यवेक्षकों से भी सुझाव मांगे थे। इस कमेटी ने अपने अध्ययन में यह पाया कि 2014 के बाद से ना सिर्फ उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी है बल्कि चुनावी प्रचार में होने वाला खर्चा भी बढ़ा है। कमेटी ने अपने अध्ययन में यह भी पाया कि धीमे-धीमे चुनाव प्रचार का तरीका बदल रहा है और वर्चुअल माध्यमों का इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है।वर्चुअल रैली इसका विकल्प हो सकता है, ताकि कोरोना से बचाव के साथ-साथ समय और धन की बचत हो सके.