उत्तराखंड के चुनाव में आपदा नहीं बन पाई बड़ा मुद्दा?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
विषम भूगोल वाला उत्तराखंड आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। साल दर साल प्राकृतिक आपदाओं में बड़े पैमाने पर जान-माल को नुकसान पहुंच रहा है। पिछले सात साल के आंकड़ों पर ही नजर दौड़ाएं तो इस अवधि में प्राकृतिक आपदाओं ने 794 व्यक्तियों की जान ले ली। 13 हजार से अधिक घर ध्वस्त हुए तो पशुधन और खेती को भी बड़े पैमाने पर क्षति पहुंची। प्रदेशभर में 400 से अधिक आपदा प्रभावित गांवों के लोग हर समय दहशत के साये में जी रहे हैं, जिन्हें पुनर्वास की प्रतीक्षा है। उस पर आपदा प्रभावितों के विस्थापन एवं पुनर्वास की तस्वीर देखें तो वर्ष 2011 से अब तक 85 गांवों के 1458 परिवारों का ही विस्थापन हो पाया है। इस सबके बावजूद चुनावों में आपदा मुद्दा नहीं बन पाया है। यद्यपि, सभी राजनीतिक दल इस विषय पर दावे भी करते हैं, लेकिन उनकी वास्तविकता किसी से छिपी नहीं है। अब जबकि विधानसभा चुनाव की बेला में सभी दल जनता की चौखट पर हैं तो उन्हें आपदा को लेकर सवालों से दो-चार होना ही पड़ेगा। उत्तराखंड लगातार ही प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेलता आ रहा है। अतिवृष्टि, बाढ़, भू-स्खलन, बादल फटना, जंगल की आग, आकाशीय बिजली जैसी आपदाएं हर वर्ष ही बड़े पैमाने पर जान-माल के नुकसान की वजह बनते आए हैं। जून 2013 की केदारनाथ त्रासदी को कोई कैसे भूल सकता है, जिसने समूची केदारघाटी में भारी क्षति पहुंचाई थी। बड़ी संख्या में यात्रियों को जान गंवानी पड़ी थी तो संपत्ति को भी भारी नुकसान पहुंचा था। हालिया घटनाओं को देखें तो पिछले वर्ष सात फरवरी को चमोली जिले के सीमांत रैणी गांव में आई आपदा ने 200 से ज्यादा जिंदगियां लील ली थीं। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले सात वर्षों में बाढ़ व भूस्खलन से सर्वाधिक 449 व्यक्तियों की मृत्यु हुई। 345 व्यक्तियों की मृत्यु का कारण हिमस्खलन, बादल फटना,, आकाशीय बिजली, साइक्लोन, जंगल की आग जैसी आपदाएं रहीं। हिमालयी राज्य उत्तराखंड में भूकंप का खतरा भी कम नहीं है। भूकंपीय दृष्टि से उत्तराखंड अति संवेदनशील जोन पांच व चार के अंतर्गत आता है। यहां के पांच जिले उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग (अधिकांश भाग), पिथौरागढ़ व बागेश्वर अति संवेदनशील जोन पांच में हैं। पौड़ी, हरिद्वार, अल्मोड़ा, चम्पावत, नैनीताल व ऊधमसिंह नगर जोन चार में हैं। टिहरी और देहरादून ऐसे जिले हैं, जो दोनों जोन में आते हैं। यही कारण है कि भूकंप का केंद्र कहीं रहे, उसका असर उत्तराखंड में भी दिखता है। प्राकृतिक आपदाओं से जूझते राज्य में आपदा प्रभावित गांवों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। इनमें भी पर्वतीय क्षेत्र के गांव सबसे अधिक हैं। वर्ष 2015 में राज्यभर में आपदा की दृष्टि से संवेदनशील 225 गांव चिह्नित किए गए थे। अब ऐसे गांवों की संख्या चार सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है। जिस हिसाब से ऐसे गांवों की तादाद बढ़ रही है, उसे देखते हुए प्रभावित परिवारों के पुनर्वास की स्थिति बेहद धीमी है। यह स्थिति तब है, जबकि आपदा प्रभावितों के विस्थापन एवं पुनर्वास की नीति लागू है। वर्ष 2011 में अस्तित्व में आई इस नीति के अंतर्गत अब तक 85 गांवों के 1458 परिवारों का ही विस्थापन- पुनर्वास हो पाया है। इसमें भी 83 गांवों के 1447 परिवारों का विस्थापन-पुनर्वास पिछले पांच वर्षों के दौरान हुआ। इस पर 61.02 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई। जाहिर है कि आपदा प्रभावितों की सुध लेने की दिशा में अधिक ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। आपदा के दृष्टिकोण से संवेदनशील उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन मंत्रालय अस्तित्व में है। उसकी ओर से आपदा न्यूनीकरण के लिए कदम भी उठाए गए हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लंबे समय से बात हो रही है कि आपदा के दृष्टिगत अर्ली वार्निंग सिस्टम ऊपर से नीचे की ओर विकसित किया जाएगा, लेकिन कुछेक क्षेत्रों को छोड़कर यह मुहिम रफ्तार नहीं पकड़ पाई है। इसकी जरूरत रैणी में आई आपदा के दौरान शिद्दत से महसूस की गई थी। सबसे महत्वपूर्ण है संचार तंत्र। स्थिति ये है कि आपदा की समय पर सूचना न मिलने से राहत एवं बचाव कार्यों में देरी होती है। ऐसा तंत्र अब तक विकसित नहीं किया जा सका है, जिससे तत्काल सूचनाओं का आदान प्रदान हो सके। रैणी आपदा के बाद ग्लेशियरों का अध्ययन कराने की बात भी हुई थी, लेकिन इसकी रफ्तार तेज करने की आवश्यकता है। ग्राम स्तर पर तत्काल बचाव एवं राहत कार्य शुरू करने के लिए आपदा प्रबंधन टोलियों के गठन और उन्हें प्रशिक्षित करने भी दरकार है। आपदा प्रभावित गांवों के विस्थापन एवं पुनर्वास की राह में बजट की कमी भी बाधक है। प्रभावित परिवारों के विस्थापन के लिए अच्छी-खासी धनराशि की जरूरत होती है और राज्य की आर्थिक स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में राज्य की स्थिति का वास्ता देते हुए केंद्र सरकार में मजबूती से यहां का पक्ष रखा जाना चाहिए, ताकि वहां से आर्थिक मदद मिल सके और आपदा प्रभावितों का विस्थापन हो सके। जो परिवार प्राकृतिक आपदा में घर-जमीन खो चुका हो और उसका पुनर्वास न हुआ तो उस पर क्या बीतती होगी। इसी तरह नदी-नालों के नजदीक से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र तक के आपदा प्रभावित गांवों के निवासियों का क्या हाल होगा, जो भय के साये में जीवन गुजारने को विवश हैं और उन्हें राहत की रोशनी नहीं दिख रही हो। इस परिदृश्य के बीच जब विधानसभा चुनाव के लिए मैदान में उतरे प्रत्याशी और उनके समर्थक जनता के मध्य जाएंगे तो, प्रभावितों के बीच से सवालों की झड़ी तो लगेगी ही। सभी दल और प्रत्याशी आपदा प्रभावितों के आंसू जल्द पोंछने का वादा भी करेंगे, लेकिन भविष्य में वे क्या कदम उठाते हैं इस पर सभी की नजर रहेगी। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का कहना है कि उत्तराखंड में आपदा की संवेदनशीलता को भाजपा अच्छी तरह समझती है, महसूस करती है। पिछले पांच वर्षों में भाजपा सरकार ने आपदा प्रभावितों के विस्थापन, पुनर्वास को तेजी से कदम उठाए तो आपदा न्यूनीकरण के लिए संसाधन जुटाने को भी प्रयास किए गए। हमारा प्रयास यही रहेगा कि सभी आपदा प्रभावित परिवारों के विस्थापन में और तेजी लाई जाए। साथ ही आपदा प्रबंधन तंत्र को और अधिक सुदृढ़ किया जाए। भूगर्भीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट समेत अन्य सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए प्राथमिकता के आधार पर प्रभावित परिवारों का विस्थापन किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि अब पांच जिलों के 13 गांवों के 86 परिवारों के विस्थापन का प्रस्ताव है। इस दिशा में कसरत चल रही है। इसमें टिहरी जिले के डौंर गांव से 11, चमोली के सरपाणी, सूना कुल्याड़ी व झलिया से 30, रुद्रप्रयाग के गिरीया, पांजणा व छातीखाल से 15, उत्तरकाशी के बग्यालगांव से एक व पिथौरागढ़ के गगुर्वा तोक स्यारी, सानीखेत व धामीगांव से 29 परिवारों का विस्थापन शामिल है। मंत्री आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास मंत्री ने बताया कि आपदा की दृष्टि से संवेदनशील गांवों के प्रभावित परिवारों के विस्थापन को लेकर सरकार गंभीर है। इसे लेकर तेजी से कदम बढ़ाए जा रहे हैं। कोशिश ये है कि ज्यादा से ज्यादा प्रभावित परिवारों का विस्थापन हो। इसके लिए बजट की व्यवस्था को केंद्र सरकार से भी आग्रह किया है. आपदाओं से निपटने में सरकारों की तैयारियां दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती हैं। राज्य के संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र के साथ विकास के नाम पर भी खिलवाड़ किया जा रहा है। आपदाओं ने इस हिमालयी क्षेत्र की पर्यावरणीय स्थिरता को और अधिक जर्जर बना दिया है। जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद फरवरी 2021 की ऋषि गंगा त्रासदी इस बात का प्रमाण है। हमारे राजनीतिक वर्ग को आपदाओं से सबक लेते हुए जहां भविष्य की नीति निर्धारण करनी चाहिए, लेकिन इसके विपरीत दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह है कि आपदाओं को अवसर बना निहित स्वार्थ और राजनीतिक रोटियां तक सेंकने से भी परहेज नहीं किया जाता है। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।