नई सरकार से उम्मीद,लोकलु भावन नहीं लोक कल्‍याण की योजनाओं की जरूरत

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नई सरकार से उम्मीद,लोकलु भावन नहीं लोक कल्याण की योजनाओं की जरूरत

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड में 10 मार्च को चुनाव परिणाम सामने आने के बाद नई सरकार के गठन का रास्ता साफ हो जाएगा। किस दल की सरकार बनेगी, इसे लेकर भी इंतजार खत्म होगा। सत्ता पर बैठने जा रहे दल के लिए उसके घोषणापत्र को लागू करना स्वाभाविक रूप से सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी। मतदाताओं को लुभाने के लिए रचे गए गुलाबी वायदों के मायाजाल पर क्रियान्वयन काफी मुश्किल होगा। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले प्रदेश में वार्षिक बजट का 15 प्रतिशत भी जब विकास व निर्माण कार्यों के लिए रखना मुश्किल हो तो लोकलुभावन घोषणाओं को जमीन पर उतारने में पसीना छूटना तय है। जनमानस की अपेक्षा लोकलुभावन से ज्यादा लोक कल्याण कार्यों की है। बिजली, पानी, स्वास्थ्य, साफ-सफाई समेत तमाम जन सेवाओं की बेहतर और सुचारू उपलब्धता के रूप में उसे सुकून चाहिए। सड़कें, ढांचागत विकास, रोजगार व आजीविका के साधनों के तेजी से विस्तार के साथ गुणवत्तापरक रहन-सहन आम जन की अपेक्षाओं के केंद्र में है। नई सरकार को अगले पांच साल जनाकांक्षाओं के इसी पहाड़ से जूझते हुए खुशहाली की नई राह तैयार करनी है।प्रदेश का अधिकतर भू-भाग पर्वतीय है। छोटा राज्य होने के बावजूद इस भू-भाग में ढांचागत विकास बड़ी चुनौती है। इसकी बड़ी वजह विकास कार्यों की लागत अधिक होना है। पर्यटन प्रदेश के रूप में उत्तराखंड की संभावना इस क्षेत्र के विकास से जुड़ी है। अवस्थापना सुविधाओं का विस्तार जितना अधिक होगा, पर्यटन को भी उतना बढ़ावा मिल सकेगा। अभी राज्य की आर्थिकी को तीर्थाटन व धार्मिक पर्यटन से खाद-पानी मिल रहा है, लेकिन भविष्य में आर्थिकी को मजबूत करने का माध्यम पर्यटन को ही माना जा रहा है। मूलभूत सुविधाओं की गुणवत्ता पर्यटन प्रदेश की छवि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी ही, साथ में पलायन को रोकने में प्रभावी रहने वाली है। नई सरकार को इस मोर्चे पर खासी मशक्कत करनी होगी। इस मामले में अभी राज्य पूरी तरह केंद्र पर निर्भर है। केंद्रपोषित योजनाओं और केंद्रीय मदद से लोक कल्याण के कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। राज्य का विशेष दर्जा होने की वजह से केंद्रीय योजनाओं में ज्यादा राशि मिल रही है। यह राशि बढ़कर अब सालाना नौ हजार करोड़ तक पहुंच गई है। इसी सहायता पर राज्य के विकास का दारोमदार भी है।अगले महीने सत्ता संभालने के बाद नई सरकार को सबसे पहले नए वार्षिक बजट की तैयारी में जुटना होगा। 20 वर्षों में बजट आकार, बजट स्वीकृति और खर्च में बड़ा अंतर रहा है। इसी वजह से बजट निर्माण की प्रक्रिया पर भी सवाल उठे हैं। बजट आकार और खर्च में बड़ा अंतर पाटने की चुनौती नई सरकार के सामने होगी। अभी तक यह बड़ा अंतर यह दर्शाता है कि वायदों को जमीन पर उतारना मुश्किल रहा है। नई सरकार के पहले बजट में भी घोषणाओं को पूरा करने का दबाव दिखना तय है। ऐसे में बजट आकार बड़ा दिखाई दे तो आश्चर्य नहीं किया जा सकता। सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती बजट के सदुपयोग की होगी। बजट आकार की तुलना में वर्षभर 70 से 80 प्रतिशत भी बजट खर्च के लिए स्वीकृत नहीं हो पा रहा है। स्वीकृत राशि और खर्च में भी बड़ा अंतर बना हुआ है। वित्तीय वर्ष के आखिरी दिनों में बजट खपाने की प्रवृत्ति से पार नहीं पाया जा सका है।सरकार को सबसे बड़ी परेशानी के रूप में वित्तीय संसाधनों की कमी से जूझना है। कोरोना काल की वजह से दो वित्तीय वर्षों में प्रदेश के कर राजस्व में गिरावट दर्ज हो चुकी है। राज्य को कर राजस्व के रूप में करीब 11 हजार करोड़ की आमदनी हो रही है। गैर कर राजस्व के रूप में करीब 1600 करोड़ रुपये की प्राप्ति होती है। केंद्रीय करों में राज्य की हिस्सेदारी करीब साढ़े सात हजार करोड़ रुपये है। वहीं राज्य के कुल खर्च में वेतन की हिस्सेदारी बढ़कर करीब 33 प्रतिशत तक पहुंच रही है। कार्मिकों के वेतन पर करीब 15 हजार करोड़ और पेंशन पर 6300 करोड़ खर्च हो रहा है। राज्य के कर राजस्व की तुलना में वेतन और पेंशन का खर्च बेहद ज्यादा है। ऐसे में वित्तीय संसाधनों को बढ़ाने का दबाव सरकार पर रहेगा। ऐसा नहीं होने की स्थिति में विकास कार्यों और घोषणाओं पर कदम बढऩे के बजाय ठिठक भी सकते हैं।राज्य पर ऋण का बोझ बढ़कर 73 हजार करोड़ से अधिक हो चुका है। इसका सीधा अर्थ यह है कि राज्य का प्रत्येक व्यक्ति करीब 73 हजार रुपये का कर्जदार है। ऋण की राशि विकास कार्यों पर नहीं, बल्कि गैर विकास मदों पर खर्च हो रही है। अब लिए गए ऋण पर भारी-भरकम ब्याज देना पड़ रहा है। ब्याज के रूप में ही करीब 5500 करोड़ की राशि चुकाने की नौबत आ चुकी है। यही नहीं राज्य के कुल सकल घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी का 25 प्रतिशत तक ऋण की सीमा रहना चाहिए, लेकिन यह बढ़कर 31 प्रतिशत हो चुका है। आमदनी और खर्च में बढ़ते असंतुलन को पाटने पर सरकार को ध्यान देना होगा। ऐसा नहीं होने की स्थिति में राज्य की मुश्किलें बढऩा तय है।उत्तराखंड में राज्य गठन के बाद से ही नौकरशाही हावी रहने की शिकायतें हर स्तर पर गूंजती रही हैं। नौकरशाही का शिकार आम जन ही नहीं, सत्तारूढ़ दल के ही विधायक और मंत्री भी रहे हैं। अब तक प्रत्येक सरकार के कार्यकाल में यह मु्द्दा असंतोष का कारण बना है। दरअसल शासन जितना चुस्त-दुरुस्त होगा, उतना ही सुशासन नजर आएगा। आम जनता को भी सुकून का अहसास होगा। हालत ये है कि नौकरशाही के चलते तहसीलों, ब्लाकों और जिलों के स्तर पर होने वाले काम शासन की चौखट तक पहुंच रहे हैं। इसके बाद शासन और सचिवालय स्तर पर समस्याओं का यही अंबार खत्म होने का नाम नहीं लेता। इससे निपटने के लिए तहसील दिवस, जनता मिलन, जनता दरबार जैसे कदम उठाए तो जाते हैं, लेकिन उनका अपेक्षित प्रभाव दिखाई नहीं देता। नई सरकार इस समस्या का समाधान कर आम जन के साथ ही जन प्रतिनिधियों को राहत देगी, 14 फरवरी को मतदाता नई उम्मीदों के साथ अपना निर्णय सुना चुके हैं। राजनीतिक दलों और नई सरकार का भविष्य ईवीएम में बंद है। चंद दिनों बाद ही जनता का निर्णय सामने आ जाएगा। इसकी प्रतीक्षा की जा रही है।

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