हिमालयी क्षेत्रों में मानव हस्तक्षेप पर लगाम जरूरी

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हिमालयी क्षेत्रों में मानव हस्तक्षेप पर लगाम जरूरी

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

हाल के वर्षों में देश के जीवन-मरण के अनेक सवाल पृष्ठभूमि में डाल दिए गए। ऐसा पहले भी होता रहा है। संसाधनों की लूट कई तरह से बढ़ी। इसका असर दूरस्थ भारत में सबसे ज्यादा पड़ा। हिमालय, गंगा तथा पर्यावरण ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर जमीन, पानी और जंगल से जुड़े सवाल भी महत्व नहीं पा सके। नई आर्थिक नीति का दुष्प्रभाव लगातार ग्रामीण जीवन पर असर करता रहा। सड़कों के नाम पर जरूर ऐतिहासिक खुदाई हुई और पहली बार हिमालय में इतनी चौड़ी सड़कें बनाने का जोखिम उठाया गया, जिसकी पर्यावरण इजाजत नहीं देता। पेड़ों के कटान की भी अनदेखी की गई। अब चुनाव के समय पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, हिमालय, गंगा, कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्यों आदि की चर्चा तो राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों में जरूर है, पर गहराई और गंभीरता से नहीं।भाजपा ने हिमालय पर राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत जरूर की, हालांकि इसका खाका पहले बन गया था। नीति आयोग ने विगत नवंबर में हिमालयी राज्यों की एक क्षेत्रीय काउंसिल बनाने की घोषणा जरूर की, पर उसका कोई सर्व हिस्सेदारी वाला सम्मेलन कभी नहीं हो सका। इस तरह की काउंसिल पूर्वोत्तर के राज्यों में पहले से है, जो वहां के भूमिगत तथा सशस्त्र आंदोलनों को नियंत्रित नहीं कर सकी है। नीति आयोग अपने पूर्ववर्ती योजना आयोग की कम से कम एक दर्जन से अधिक महत्वपूर्ण रिपोर्टें देखने-समझने का प्रयास नहीं कर सका, जिनमें बहुत गंभीरता से हिमालय, पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत तथा अरावली आदि पर पर्यावरण संरक्षण, आर्थिक विकास तथा संसाधनों की हिफाजत के सुझाव दिए गए हैं।अभी हिमालयी तकनीकी विश्वविद्यालय की स्थापना की बात की गई है, पर हिमालय में एक स्वायत्त संस्थान की बात पिछली घोषणा से आगे नहीं बढ़ सकी है। भाजपा ने ऐसे कार्यक्रम चलाने का आश्वासन जरूर दिया है, जिनसे हिमालयी ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने को नियंत्रित किया जा सके, तो कांग्रेस ने पर्यावरण संरक्षण प्राधिकरण बनाने तथा गंगा प्राधिकरण का बजट दोगुना करने का आश्वासन दिया है। पर हिमालय, पश्चिमी घाट, विंध्य, अरावली जैसे अन्य पहाड़ी क्षेत्र तथा तमाम जनजातीय क्षेत्रों के बारे में दो राष्ट्रीय दलों के चुनाव घोषणापत्रों में ज्यादा प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट क्षेत्र के पांच राज्यों ने गाडगिल समिति के सुझाव नहीं माने और केरल को पिछले साल उसका दुष्परिणाम झेलना पड़ा। भविष्य में गोवा को भी संकट झेलना पड़ सकता है, क्योंकि वहां बहुत अधिक खनन हो रहा है। हिमालय के मामले में अब ज्यादातर स्थानीय मुद्दे गायब होते जा रहे हैं। हिमालय के विकास का मिजाज क्या हो, यह राष्ट्रीय प्रश्न है, जिसे संकीर्ण नजर से नहीं तय किया जा सकता।
सिर्फ हिमालय, गंगा, देवभूमि या पवित्र क्षेत्र की रट न हिमालय को संरक्षण देगी, न सम्मान। इससे आगे जाना होगा। भारतीय हिमालय और पश्चिमोत्तर राज्यों से चालीस से अधिक सांसद चुने जाते हैं, जो हिमालयी नीति अपनी शर्तों पर नहीं बना सकते। पर्यावरण मंत्री के रूप में कुछ कठिन निर्णय हिमालय के संबंध में लिए थे, जिस कारण उन्हें हटा दिया गया था। तब हिमालय क्षेत्र के सांसद उनके पक्ष में खड़े नहीं हो सके थे। पूर्वोत्तर के पीडी राय जैसे कुछ सांसदों सांसद हिमालय में बड़े बांधों और अवैज्ञानिक खनन का निरंतर विरोध करते रहे हैं, पर केंद्र सरकार या उनकी पार्टी उनको उस गंभीरता से नहीं सुनती, जिसकी दरकार है। उत्तराखंड के चुनावों में एक बार फिर पर्यावरण और क्लाइमेट के वह सवाल गायब हैं जिनका सीधा रिश्ता राज्य की खुशहाली और आर्थिक तरक्की से है.कुछ ही दिन बाद 14 फरवरी को जब उत्तराखंड में नई विधानसभा के लिए वोट डाले जाएंगे उससे ठीक हफ्ते भर पहले चमोली आपदा का एक वर्ष पूरा होगा. पिछली 7 फरवरी को चमोली जिले में ऋषिगंगा नदी में आई बाढ़ से 200 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी और सैकड़ों करोड़ की क्षति हुई थी. चमोली आपदा ने इस हिमालयी क्षेत्र में रह रहे लोगों के जीवन पर हर पल मंडराते खतरे और उनकी जीविका के सवाल को ही उजागर नहीं किया बल्कि यह भी दिखाया कि न तो पहाड़ में ऐसी आपदाओं से निपटने की तैयारी है और न को ई पूर्व चेतावनी प्रणाली (अर्ली वॉर्निंग सिस्टम).आसपास आपदा से डरे लोग अब इन गांवों में नहीं रहना चाहते. कई बार इन पहाड़ों पर बनी किसी झील के टूटने या भारी बरसात में भूस्खलन की आशंका से दहशत फैल जाती है. चमोली आपदा के बाद एक बार फिर पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील इस हिमालयी इलाके में जलवायु परिवर्तन प्रभाव और सुदृढ़ आपदा प्रबन्धन की कमी पर सवाल उठे लेकिन चुनाव में यह मुद्दा नहीं दिख रहा. हिमालयी चोटियों पर खतरा नई बात नहीं है. यहां बादल फटना, अचानक बाढ़ आना और झीलों का टूटना होता रहा है. चमोली आपदा ने 2013 की केदारनाथ आपदा, जिसमें कम से कम 6,000 लोगों की जान गई की यादें ताजा कर दीं हैं लेकिन छोटी-बड़ी आपदाएं तो लगभग हर साल आ रही हैं और उनकी तीव्रता बढ़ रही है.जानकार कहते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते प्रभाव से हिमनदों के पिघलने की रफ्तार तेज हो रही है जो इन विकराल होती आपदाओं का कारण है. अब 2019 में छपी को ही लीजिए जो कि अमेरिका खुफिया विभाग की सैटेलाइट तस्वीरों पर आधारित है. इसके मुताबिक साल 2000 के बाद हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो चुकी है.हिमालयों पर काम करने वाली  कि अगर हम कार्बन इमीशन को तेजी से रोक भी दें और धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखें तो भी सदी के अंत तक हिमनदों की एक तिहाई बर्फ पिघल जाएगी. अगर यह तापमान वृद्धि दो डिग्री तक पहुंची तब तो साल 2100 तक हिमालयी ग्लेशियरों की आधी बर्फ गल चुकी होगी. उत्तराखंड में आई ताजा आपदा से ठीक पहले प्रकाशित एक शोध भी हिमनदों की कमजोर होती हालत से उत्पन्न खतरे के प्रमाण देता है.कुछ ऐसी ही चेतावनियां अंग्रेजी अखबार द गार्डियन में छपी रिपोर्ट में हैं जिन्हें यहां पढ़ा जा सकता है. स्पष्ट है कि ऐसे हालात ऊंचे पहाड़ों से हो रहे पलायन को और तेज कर सकते हैं. सरकारी आंकड़े कहते हैं कि राज्य के 1,000 से अधिक गांव खाली हो चुके हैं जिन्हें  कहा जाता है. स्थानीय स्तर पर आये दिन बाढ़, भूस्खलन और क्लाइमेट में बदलाव की चोट यहां रह रहे लोगों की जीविका पर तो है ही, बड़ी विकास परियोजनाओं में पर्यावरण नियमों की अनदेखी ने कई गांवों को बर्बाद किया है. पिछले साल रैणी गांव की ममता राणा ने  किया था. लोग अपने घरों को छोड़कर जिस गांव में बसना चाहते हैं वहां के लोग संसाधनों पर दबाव के कारण इन लोगों को अपने पास नहीं बसाना चाहते. रैणी से कुछ दूर  जहां जल संसाधनों और कृषि को जल विद्युत परियोजनाओं के लिये किए जा रहे विस्फोटों ने बर्बाद कर दिया है. उत्तराखंड के चुनावों में क्या इस बार राजनेता ये मुद्दे उठायेंगे या जनता इन पर वोट करेगी. यह पर्यावरण या आर्थिक रोड मैप के लिये उनकी समझ का ही नहीं बल्कि सामाजिक चेतना का भी बैरोमीटर होगा.