राजनीतिक विरासत संभालने की बजाय बनाई अपनी पहचान

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राजनीतिक विरासत संभालने की बजाय बनाई अपनी पहचान

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

राजनीति में परिवारवाद के कारण योग्य व सच्चे कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के इन दिनों चल रहे विमर्श के बीच उत्तराखंड में तस्वीर इसके विपरीत भी रही है। यहां अपने समय में जनता के बीच बेहद लोकप्रिय रहे विधायकों की संतति (बेटे-बेटियां) ने विरासत में मिले अपने पिता के जनता दरबार पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। खुद के भविष्य का अलग ‘संसार’ रच उसमें सफलता पाई।तरुण कुमाऊं के संपादक व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बैरिस्टर स्व. मुकंदीलाल ने 1962 में लैंसडाउन से निर्दलीय चुनाव जीता था। यह वह समय था, जब चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर अनाम प्रत्याशी भी विजय प्राप्त कर लेता था। विरासत में मिले भक्त समर्थकों के बावजूद मुकंदीलाल के बेटे ज्यार्ज भारत सिंह ने भारतीय सेना में अपना भविष्य चुन मेजर जनरल तक का रैंक हासिल किया था। उनके दूसरे पुत्र दिग्विजय सिंह उर्फ डिग्बी लाल भी सेना में कर्नल पद से सेवानिवृत्त हुए थे। जबकि चारों बेटियों ने भी राजनीति के अपने पिता के जनता दरबार से दूरी बनाए रखी।1957 से 1969 तक लगातार चार बार रानीखेत के विधायक रहे स्व. हरिदत्त कांडपाल आज भी अपनी सादगी के लिए पहचाने जाते हैं। उनके बड़े बेटे रमेश चंद्र कांडपाल जिला सहकारी बैंक से सेवानिवृत्त हैं। जबकि मोहन कांडपाल गांव कांडे (सुरईखेत) द्वाराहाट में रहते हैं। एक बेटा शेखर चंद्र चौखुटिया में व्यवसाय करते हैं, जबकि सबसे छोटा बेटा महिपाल फार्मेसिस्ट हैं।1980 व 89 में रानीखेत क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले स्व. जसवंत सिंह बिष्ट ने भी अपनी राजनीति को बेहद सिद्धांतों का चोला पहनाया था। जीवनकाल तक वह राजनीति के साथ ही पारंपरिक खेती करने वाले जसवंत सिंह बिष्ट के बड़े बेटे मनोहर (अब दिवंगत) ने वकालत का पेशा अपनाया था। जबकि छोटा बेटा रमेश सिंह बिष्ट वर्तमान में ज्यौना गांव (भिकियासैंण ब्लाक) स्थित अपनी ससुराल में रह रहे हैं।अपने निस्वार्थ सेवाभाव के चलते लोकप्रिय व वामपंथी विचारधारा के विद्यासागर नौटियाल ने 1980 में देवप्रयाग क्षेत्र का क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया था। क्षेत्र की जनता का उन पर अटूट विश्वास था, इसके बावजूद उनकी संतति को राजनीति नहीं मोह सकी। आइआइटी मुंबई से तकनीकी शिक्षा प्राप्त उनके बड़े बेटे इस्पाती नौटियाल फिलहाल अमेरिका में रह रहे हैं। दूसरे बेटे पंचशील सहित चारों बेटियों रश्मि सेमवाल (दिवंगत), अनिता जोशी, अंतरिक्षा व विद्युत सुब्रमणियम भी राजनीति से दूर हैं।तीन बार उप्र व एक बार उत्तराखंड विधानसभा के लिए बदरीकेदार क्षेत्र से निर्वाचित केदार सिंह फोनिया के बेटे विनोद फोनिया भारतीय विदेश सेवा (आइएफएस) के अधिकारी हैं। तीन बार उत्तरकाशी के विधायक रहे बर्फिया लाल जुंवाठा का एक बेटा रवींद्र जुवाठा भी वर्तमान में एसडीएम हैं। पृथक राज्य बनने के बाद द्वाराहाट-चौखुटिया के विधायक रहे बिपिन त्रिपाठी के छोटे बेटे इंजीनियर शैलेष आस्ट्रिया में हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग, देहरादून से एमटेक व आइआइटी खडगपुर से पीएचडी करने वाली उनकी बेटी पूनम नेपाल में नौकरी कर रही हैं। राजनीतिक विरासत  में भी  विरासत की सियासत चुनावी राजनीति में परिवारवाद हमेशा से ही बड़ा मुद्दा रहा है। लेकिन इस मुद्दे के बावजूद राजनीति में परिवारवाद हावी है। प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा हो या कांग्रेस दोनों ही दल परिवारवाद की छाया से बाहर नहीं निकल पाए हैं। फायदा लेने के लिए सियासी दलों ने भी परिवारवाद को जब चाहा अपनाया और जब चाह इस मुद्दे पर सियासत भी की।  विरासत की इस सियासत के दम पर राजनीति कर रहे उत्तराधिकारी टिकट की चाहत कर रहे हैं। उपचुनाव से हटकर भाजपा में विरासत की सियासत उतनी ही फली-फूली है जितनी कांग्रेस में। इसकी दर्जनों मिसालें हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी (सेनि) का ही प्रभाव था कि उनकी बेटी ऋतु खंडूड़ी को यमकेश्वर से टिकट मिला और वह चुनाव जीतीं। वह एक बार फिर चुनाव मैदान में हैं। थराली में पार्टी के विधायक के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत उनकी पत्नी देख रहीं। ठीक वैसे ही पूर्व कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत की पत्नी चंद्रा पंत और विधायक स्व. सुरेंद्र सिंह जीना के भाई महेश जीना भी विरासत की सियासत संभाल रहे हैंगंगोत्री सीट पर विधायक रहे की पत्नी और कैंट सीट पर विधायक रहे स्व. हरबंस कपूर की पत्नी सविता कपूर भी हैं। पार्टी के वरिष्ठ विधायक हरभजन सिंह चीमा के बेटे त्रिलोक सिंह चीमा, कैबिनेट मंत्री विधायक कुंवर प्रणव चैंपियन की पत्नी देवयानी भी चुनाव में हैं। कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत की पुत्र वधू अनुकृति लैंसडौन से चुनाव में हैं। विरासत में मिली सियासत में पांव जमाने का जिसे भी मौका मिला, वह नहीं चूका हैं।