गुलाम भारत में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते है जिसमें अंग्रेजों ने किसी भारतीय के काम को सराहा हो. न केवल सराहा हो बल्कि उसका लोहा भी माना हो. ऐसे ही एक भारतीय थे पंडित नैन सिंह रावत. पंडित नैन सिंह रावत को शायद भारत में बहुत कम लोग जानते हों लेकिन अंग्रेज उनका नाम सम्मान के साथ लेते हैं.उत्तराखंड के सुदूर मिलम नामक गांव 21 अक्टूबर 1830 को जन्मे थे नैन सिंह। ऐसे दुर्गम गाँव में पैदा होने के कारण अनुभव ने उन्हें पहाड़ों का जानकार बना दिया। घर में आर्थिक तंगी थी जिसके कारण वर्ष 1852 में नैन सिंह ने अपना घर छोड़ कर व्यापार करना शुरू कर दिया। मुनस्यारी में तिब्बत सीमा से सटे अंतिम गांव मिलम में जन्मे पंडित नैनसिंह रावत के पिता का नाम अमर सिंह था। उनको लोग लाटा बूढ़ा के नाम से जानते थे। पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्द ही पिता के साथ वह भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गए। हिंदी एवं तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था।इस महान अन्वेषक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। पंडित नैनसिंह के अलावा उनके भाई मणि सिंह, कल्याण सिंह और चचेरे भाई किशन सिंह ने भी मध्य एशिया का मानचित्र तैयार करने में भूमिका निभाई थी। इन्हें जर्मन भूगोलवेत्ताओं एडोल्फ और रॉबर्ट ने सबसे पहले सर्वे का काम सौंपा था।सर्वे आफ इंडिया ने दस अप्रैल 1802 को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे (जीटीएस) की शुरुआत की थी। इस सर्वे का उद्देश्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा मध्य एशिया और महान हिमालय का मानचित्र तैयार करना था। पंडित नैनसिंह की जीवनी में उल्लेख है कि वह 1863 तक मिलम के स्कूल में शिक्षक रहे। तभी से उनको पंडित कहकर संबोधित किया जाने लगा। पंडित नैन सिंह और उनके भाई किशन सिंह 1863 में जीटीएस से जुड़े और नैन सिंह 1875 तक तिब्बत की खोज में लगे रहे। जीटीएस के अंतर्गत पंडित नैन सिंह ने काठमांडू से लेकर ल्हासा और मानसरोवर झील का नक्शा तैयार किया। इसके बाद वह सतलुज और सिंध नदी के उद्गम स्थलों तक गए। उन्होंने 1870 में काशगर मिशन और 1874 लेह मिशन पर काम किया। पंडित नैन सिंह को लेह से ल्हासा तक तिब्बत के उत्तरी भाग का मानचित्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। उनका सबसे कठिन दौरा 15 जुलाई 1874 को लेह से शुरू हुआ था, जो उनकी आखिरी खोज यात्रा भी साबित हुई। इसमें वह लद्दाख के लेह से होते हुए ल्हासा और फिर असम के तवांग पहुंचे थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण जानकारियां जुटाई। जो बाद में बहुत उपयोगी साबित हुई। उन्हें ल्हासा से बीजिंग तक जाना था, लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ। पंडित ने लेह से लेकर उदयगिरी तक 1405 मील की यात्रा की थी। द जियोग्राफिकल मैगजीन में 1876 में पहली बार उनके कार्यों पर लेख प्रकाशित हुआ था।रायल जियोग्राफिकल सोसायटी ने पंडित नैन सिंह को स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था। उन्हें स्वर्ण पदक देते हुए कर्नल युले ने कहा था कि किसी भी अन्य जीवित व्यक्ति की तुलना में एशिया के मानचित्र तैयार करने में उनका योगदान सर्वोपरि है। पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उन्हें स्वर्णजड़ित घड़ी दी। ब्रिटिश सरकार ने 1877 में उन्हें ‘भारतीय साम्राज्य का साथी’ की उपाधि से नवाजा। उन्हें रुहेलखंड में एक गांव जागीर के रूप में और साथ में 1000 रुपये दिए गए थे। भारतीय डाक विभाग ने उनकी उपलब्धि के 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट निकाला था। उनकी यात्राओं पर कई किताबें प्रकाशित हुई हैं।महान सर्वेयर पंडित नैनसिंह की याद में 21 अक्तूबर 2015 को मुनस्यारी के बलाती में पर्वतारोहण प्रशिक्षण संस्थान खुला। इस संस्थान की प्रथम विशेष कार्याधिकारी पर्वतारोही रीना कौशल धर्मशक्तू को बनाया गया। संस्थान के माध्यम से हर साल साहसिक खेल गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता है।अंग्रेज नैन सिंह और मीणा सिंह को प्रशिक्षण देने के लिए देहरादून लाए, लेकिन दिशा और दूरी मापक यंत्र इतने बड़े थे कि उन्हें लेकर तिब्बत में प्रवेश करना संभव नहीं था। जब बात नहीं बनी तो नैन सिंह और मीणा सिंह ने बौद्ध भिक्षुओं का वेश बनाया अपने कपड़ों में दिशा सूचक यंत्र और थर्मामीटर छुपाया और पैदल ही चल पड़े। नैन सिंह खुद तो काठमांडू के रास्ते तिब्बत को निकले और मीणा सिंह को कश्मीर के रास्ते रवाना किया। मीणा सिंह बीच रास्ते से वापस लौट आए। नैन सिंह तिब्बत पहुंचे। नैन सिंह रावत ने अपने दोनों पैरों में 33.5 इंच की रस्सी बांधी, जिससे कदम समान दूरी पर पड़ें और दूरी की सटीक जानकारी हो सके। इस तरह उन्होंने 2000 कदम में एक मील अर्थात् 1.6 किलोमीटर की दूरी तय की। उन्होंने 100 मनके की एक माला ले रखी थी, जितना चलते मनका फेरते जाते।तीन साल की अपनी दुस्साहसिक यात्रा में नैन सिंह रावत ने दुनिया को बताया कि तिब्बत की लंबाई चौड़ाई कितनी है। उन्होंने बताया ल्हासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है। नैन सिंह ने ब्रह्मपुत्र नदी के साथ 800 किलोमीटर पैदल यात्रा कर दुनिया को जानकारी दी कि सांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी है। तिब्बत की सांग पो ही भारत की ब्रह्मपुत्र है। 1866 में नैन सिंह मानसरोवर होते हुए देहरादून और लौट आए और अपनी खोज अंग्रेजों को सौंपी, जिसे अंग्रेजों ने दुनिया के सामने रखा। इसके बाद 1867-68 में भी नैन सिंह एक बार फिर तिब्बत गए। इस बार नैन सिंह चमोली जिले से निकले और वहां से तिब्बत के थोक जालूंग पहुंचे जहां उन्हें सोने की खदानें मिलीं, जिनकी जानकारी तब तक दुनिया को नहीं थी। सोने की खदानों की जानकारी भी नैन सिंह ने अंग्रेजों को दे दी थी।अपनी यात्रा की समाप्ति के बाद नैन सिंह ने अपने गांव के स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया था। यहीं से उनके नाम के आगे पंडित जुड़ा पंडित का अर्थ ज्ञानी अथवा विद्वान होता है और नैन सिंह तो महाज्ञानी थे। 1895 में नैन सिंह का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। नैन सिंह जैसे जीवट के धनी और विद्वान के जीवन व कार्यों को पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए सर्वे आफ इंडिया के लंदन स्थित दफ्तर ने उन्हें सम्मानित किया। नैन सिंह की याद में सर्वे आफ इंडिया के देहरादून स्थित दफ्तर में सभागार भी बनाया गया है।इस महान अन्वेषक का 1 फरवरी 1895 में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।