नमक सत्याग्रह में उत्तराखंड की रही भूमिका

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हिंदुस्तान के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण दिन है। आज से उन्नब्बे साल पहले 12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी जी ने चिन्हित 78 आंदोलनकारियों के साथ साबरमती आश्रम से नमक आंदोलन के लिए डांडी मार्च प्रारम्भ किया था।इसी दिन महात्मा गांधी ने यह संकल्प भी लिया था की जब तक मुल्क को आजादी नहीं मिलेगी तब तक वह साबरमती आश्रम में प्रवेश नहीं करेंगे। ऐसा ही हुआ।अस्थायी राजधानी देहरादून से 18 किमी दूर स्थित खाराखेत गांव आज भी लोगों में देशभक्ति का जज्बा पैदा करता है। यह वही गांव हैए 1930 में गांधीजी के नमक सत्याग्रह के आह्वान पर आजादी के मतवालों ने जहां नून नदी में नमक बनाकर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी थी। यहां नून नदी का पानी नमकीन है। पछवादून का एतिहासिक खाराखेत गांव आजादी के बाद भले ही सरकारों की उपेक्षा झेलता रहा होए लेकिन आम जनमानस के लिए यह हमेशा प्रेरणा का स्रोत रहा।वर्ष 1930 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी के दीवाने देशभर में नमक कानून तोड़ने के लिए एकजुट हो रहे थे। भला देहरादून इससे अछूता कैसे रहता। सोए 20 अप्रैल की दोपहर अखिल भारतीय नमक सत्याग्रह समिति के बैनर तले महावीर त्यागी व साथियों की अगुआई में आजादी के मतवाले खाराखेत में एकत्रित हुए और नमक बनाकर ब्रिटिश हुकूमत को चेताया कि अब बहुत दिनों तक उसकी मनमानी नहीं चलने वाली। आंदोलनकारियों ने वहां सात मई 1930 तक छह टोलियों में नून नदी पर नमक बनाया और फिर शहर के टाउन हॉल में बेचते हुए गिरफ्तार हुए।खाराखेत में जिस स्थान पर नमक कानून तोड़ा गया थाए वहां मौजूद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के स्तंभ पर इन सभी स्वतंत्रता सेनानियों के नाम अंकित किए गए हैं। कुछ वर्ष पूर्व इस स्तंभ तक जाने वाले एक मार्ग का ग्राम पंचायत की ओर से सुधारीकरण कराया गया है। लेकिनए यह मार्ग काफी लंबा हैए जबकि स्तंभ तक पहुंचने वाला मुख्य मार्ग आज भी ऊबड़.खाबड़ ही पड़ा है। खाराखेत के प्रधान आदि बताते हैं कि आजादी के बाद खाराखेत में नमक सत्याग्रह स्थल तक जाने के लिए आधी.अधूरी सड़क ही बन पाई। यही वजह है कि इस स्थान के बारे में लोगों को कम ही जानकारी है।बेशकए इतिहास को उकेरता खारा खेत का यह स्थान अंग्रेजी शासनकाल की याद दिलाता होए लेकिन प्रदेश व केंद्र की सरकार को शायद इस महत्वपूर्ण स्थान की याद नहीं है। तभी तो यह स्थान गुमनामी के पन्नों में धीरे.धीरे सिमटता जा रहा है। कभी कभार नेताओं या सरकारों को याद आती है तो गांधी को नमन करने महानुभाव या जनप्रतिनिधि पहुंच जाते हैंए लेकिन जैसे उम्मीद की जाती हैए वैसे आज तक संभव नहीं हो पाया। कोई आम व्यक्ति या दुनियाभर के रिसर्चरए टूरिस्ट यहां तक पहुंचने की कोशिश करें तो यकीन के साथ कहा जा सकता हैए यहां पहुंचना उसके लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा। झाडि़यों के बीच यह खास स्थान गुम.सा दिखता है। न यहां तक पहुंचने की सड़क और न कोई साइन बोर्ड। जाहिर है कि ऐसे महत्वपूर्ण स्थान को ऐतिहासिक स्थान देकर आगे लाने की जरूरत है। तभी महात्मा गांधी के सपनों को बल मिल सकेगा।कभी नेतागण खाराखेत पहुंचते हैंए लेकिन अब यहां तक पहुंचने के लिए सड़क भी नहीं है। सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए।ग्रामीणों ने महात्मा गांधी के आह्वान पर नमक बनाया गया थाए लेकिन इसकी महानता की कोई कद्र नहीं। सरकारें भी खामोश हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।