उत्तराखंड में नौकरशाही पर नियंत्रण पाने के लिए मंत्रियों की पहल

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उत्तराखंड में नौकरशाही पर नियंत्रण पाने के लिए मंत्रियों की पहल

 डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान सड़कों पर संघर्ष करने वाले आंदोलनकारी आज भी चिह्नीनीकरण की बाट जोह रहे हैं, क्योंकि 2015-16 में चिह्नीकरण पर रोक लग गई थी। लगातार संघर्ष और छह वर्ष के इंतजार के बाद सरकार ने आंदोलनकारियों को चिह्नित करने का निर्णय लिया। जिलाधिकारी के स्तर पर समितियां बनाई गईं, नए सिरे से आवेदन मंगाए गए, जिन्हें समितियों के समक्ष रखा गया। आवेदनों की जांच के बाद इन्हें अंतिम रूप दिया जाना था। जब तक समितियां इस दिशा में काम पूरा कर अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देकर शासन को भेजती, विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई। इससे चिह्नीकरण की प्रक्रिया एक बार फिर लंबित हो गई है। अब आंदोलनकारियों की नजरें नई सरकार पर टिकी हैं। यह नई सरकार की नीति व विवेक पर ही निर्भर रहेगा कि वह चिह्निीकरण की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है या एक बार फिर फाइलों में बंद करती है। हाल के दिनों में राज्य में दो ऐसे प्रसंग सामने आए, जिनमें से एक के कारण नौकरशाही पर नियंत्रण पाने की मंत्रियों की व्यग्रता दिखाई दी तो दूसरे में नौकरशाही की हनक की नुमाइश हुई। उत्तराखंड में नौकरशाही जन्मजात व असाध्य सी दिखने वाली समस्या है। गाहे-बगाहे सरकार के मंत्री नौकरशाही की पीड़ा का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से करते रहे हैं।मुख्यमंत्रियों से शिकायतें भी करते रहे हैं। पिछले कई मुख्यमंत्री खुद भी कई मौकों पर नौकरशाही से पार पाने में असमर्थता प्रकट करते रहे हैं। सरकार किसी भी पार्टी की हो, मुख्यमंत्री कोई भी हो प्रदेश में नौकरशाही निरपेक्ष, निर्लिप्त व निर्विकार भाव से पुष्पित-पल्लवित होती रही। राजनीतिक मौसम के अनुरूप कभी ज्यादा कभी कम, कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष। हाल की दो घटनाओं ने यहां नौकरशाही के सदाबहार विमर्श को तीव्रता प्रदान कर दी है। पहले क्रम पर नई सरकार में शपथ लेने वाले मंत्रियों की पहल का विश्लेषण करना उचित होगा। धामी मंत्रिमंडल में विभागों के बंटवारे के बाद मंत्रियों ने सचिवों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में प्रविष्टि करने का अपना विधिसम्मत अधिकार मांगा है। नौ सदस्यीय कैबिनेट में अन्य मंत्री भी इससे सहमत बताए जाते हैं। पहली निर्वाचित सरकार में मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के कार्यकाल में सचिवों की सीआर विभागीय मंत्री द्वारा लिखे जाने के बाद अंतिम प्रविष्टि के लिए मुख्यमंत्री को भेजी जाती थी। वर्ष 2008 में इस स्थापित प्रक्रिया को एक शासनादेश के द्वारा परिवर्तित कर विभागीय मंत्रियों को बाइपास कर दिया गया। हालांकि इसमें भी विभागीय मंत्री से टिप्पणी लिए जाने का प्रविधान रखा गया था, लेकिन यह क्रियान्वित नहीं होता है। विधिवत प्रक्रिया अब भी यही है, लेकिन नौकरशाही के पोषकों ने मंत्रियों को पूरी प्रक्रिया से हटाने के लिए एक अवधारणा गढ़ी। बताया गया कि मंत्रियों के पास समय का अभाव रहता है व मुख्यमंत्री सरकार के मुखिया होते हैं इसलिए फाइल मुख्य सचिव के माध्यम से सीधे मुख्यमंत्री को भेजी जाए। इसके बाद से संबंधित फाइलें सीधे मुख्य सचिव को भेजी जाने लगीं। परिणाम यह हुआ कि मंत्री के पास सचिव को जवाबदेह बनाने का एक सशक्त माध्यम लुप्त हो गया। मंत्री हाथ मलते रह गए व सीआर ऊपर ही ऊपर पार होने लगी। इस बार मंत्रियों ने सरकार के शुरुआती दिनों में ही यह विषय मुख्यमंत्री के सामने रख कर उचित कार्य किया है। मंत्रियों की इस पहल का परिणाम क्या होता है, इस पर विषय की गंभीरता को समझने वालों की नजर है।गत सप्ताह दून मेडिकल कालेज की एक एसोसिएट प्रोफेसर से संबद्ध है गौरतलब है कि अब तक सभी मुख्यमंत्री और उनके स्वजन दून अस्पताल आकर उपचार कराते रहे हैं, लेकिन सचिवों के स्वजन को सरकारी डाक्टर घर पर चाहिए और वह भी झुकी कमर के साथ। इस स्तर के अधिकारियों के खिलाफ जांच से लोगों को बड़ी उम्मीदें नहीं रहती हैं। जिनके खिलाफ जांच होती है और जो जांच करते हैं, सभी एक ही कुनबे के होंगे तो परिणाम के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है।  राज्य की नई सरकार के सामने जहां विकास योजनाओं को परवान चढ़ाने का दबाव रहेगा, वहीं बड़ी चुनौती नौकरशाही को साधने की भी रहेगी। इसका मुख्य कारण चुनाव के दौरान अधिकारियों की कार्यशैली को लेकर उठे सवाल हैं। नई सरकार को अपनी प्राथमिकताओं को धरातल पर उतारने के लिए नौकरशाही की जरूरत पड़ेगी। यह नई सरकार पर निर्भर करेगा कि वह नौकरशाही का उपयोग किस तरह से सरकार और राज्यहित में करेगी। राज्य गठन के बाद शायद ही कोई सरकार रही, जिसे नौकरशाही से न जूझना पड़ा हो। सत्ता में कांग्रेस रही या भाजपा, अधिकारियों की कार्यशैली को लेकर समय-समय पर विधायक और मंत्री सार्वजनिक मंचों पर अपनी व्यथा उठाते नजर आए।निर्वतमान भाजपा सरकार की बात करें तो शुरुआती दौर में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भी इस बात को खुले मंच पर कहा कि जनप्रतिनिधियों का दर्जा अधिकारियों से ऊपर है। निश्चित रूप से वह अपनी प्राथमिकताओं को धरातल पर उतारने की कसरत में हैं इन कार्यों को धरातल पर उतारने में नौकरशाही महत्वपूर्ण कड़ी है। ऐसे में इस पर नियंत्रण रखते हुए विकास कार्यों को आगे बढ़ाना नई सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती रहेगी। राज्य निर्माण की लड़ाई में जो आंदोलनकारी अपना घर-परिवार भूल कर कूद पड़े थे। आज उन्हें स्वयं को आंदोलनकारी साबित करने के लिए पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। शासनादेश में पूर्व में चिन्हीकरण के पांच मानकों में से पांचवें मानक को हटा दिए जाने से अब आंदोलनकारियों के सामने मुश्किल खड़ी हो गई। राज्य आन्दोलनकारी कोटे से सरकारी नौकरी करने वाले 780 आन्दोलनकारियों की नौकरी पर संकट आ गया है. हाईकोर्ट ने सरकार का आरक्षण में दिये आदेश पर दाखिल संसोधन प्रार्थना पत्र को खारिज कर दिया गया. कोर्ट ने कहा कि 1403 दिनों बाद कोर्ट में संसोधन प्रार्थना पत्र स्वीकार नहीं की जा सकता है, हांलाकि राज्य आन्दोलनकारी अधिवक्ता संघ की ओर से कोर्ट में कहा गया है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट कोई आदेश नहीं देता तब तक इन लोगों को नौकरी से ना हटाया जाए. राज्य सरकार ने कोर्ट में संसोधन प्रार्थना पत्र दाखिल कर कोर्ट आदेश का पालन करने की बात कही थी और साथ में 15 सालों से नौकरी करने वाले आन्दोलनकारियों को हटाने में असमर्थता जाहिर की थी.आपको बतादें कि उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने साल 2018 में आन्दोलनकारियों को मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक करार दे दिया था. इसके बाद सरकार ने इस मामले में कोई अपील नहीं की तो आन्दोलनकारी मंच ने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. सरकार मोडिफिकेशन याचिका लेकर हाईकोर्ट पहुंची थी. कार्यवाहक चीफ जस्टिस व जस्टिस खुल्बे की कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई. 30 जुलाई 2018 के बाद राज्य आंदोलनकारियों को चिन्हित नहीं किया गया और इसके लिए नया शासनादेश जारी किया जाएगा ।मुख्यमंत्री ने कहा कि इसके अलावा, ऐसे राज्य आंदोलनकारी जिन्हें 3100 रू की पेंशन अनुमन्य की गई है, उनकी मृत्यु के पश्चात उनके आश्रित पत्नी या पति को भी 3100 रूपए प्रतिमाह की पेंशन जारी रखी जाएगी ।धामी ने विभिन्न विभागों में कार्यरत राज्य आंदोलनकारियों को सेवा से हटाए जाने के उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश पर राज्य सरकार द्वारा पुनर्विचार याचिका दाखिल कर ठोस पैरवी करने की भी घोषणा की ।उन्होंने कहा कि आने वाले 10 वर्षों में उत्तराखंड देश का आदर्श राज्य होगा।जब उत्तराखंड के लोग अपना रजत जयंती वर्ष मनाएं तो ये प्रदेश सबसे खुशहाल प्रदेश कहलाए। ये चुनौती है, जिसे हर राज्यवासी को स्वीकार करना होगा और इस ओर जुट जाना चाहिये। आज ही के दिन सन 2000 में यूपी से पहाड़ी क्षेत्रों को अलग कर उसमें तराई के उधमसिंह नगर और हरिद्वार को शामिल करते हए उत्तरांचल राज्य की स्थापना केंद्र की अटल सरकार ने की थी। उस दौरान पहाड़ी राज्य की उम्मीदें और समस्याएं भी पहाड़ जैसी है।