भेड़पालक छह माह बुग्यालों प्रवास में सेनेटाइज?

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भेड़पालक छह माह बुग्यालों प्रवास में सेनेटाइज?

 

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उच्च हिमालय में सबसे अधिक ऊंचाई तक भेड़-बकरियों के साथ ये ही पहुंचते हैं। उच्च हिमालयी सारे दर्रो की जानकारी इनके पास होता है। हिमाचल प्रदेश से लेकर टिहरी, चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ के भेड़ पालक उच्च बुग्यालों को छोड़कर निचले जंगलों तक पहुंच जाते हैं उच्च हिमालय को प्रतिवर्ष एक लाख से अधिक भेड़ जाती हैं। जिसमें सत्त्तर हजार से अधिक धारचूला और मुनस्यारी की होती हैं। तीस हजार के आसपास अन्य जिलों की भेड़ होती हैं। जो तराई ,भावर में प्रवास के बाद पिथौरागढ़ के रास्ते जाती हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में माइग्रेशन की पूरी तैयारी हो चुकी है। भेड़पालक अपनी भेड़ बकरियों के साथ आने वाले चंद दिनों में उच्च हिमालयी बुग्यालों को रवाना होंगे। बीते पांच माह का समय तराई, भाबर के बिताई गई भेड़, बकरियां अपने साथ हानिकारक बैक्टीरिया और परजीवी उच्च हिमालय में नहीं पहुंचे इसके लिए पशुपालन विभाग द्वारा तैयारियां की गई हैं। उच्च हिमालय में प्रवेश करने वाली भेड़ बकरियों को उच्च हिमालय के प्रवेश द्वारों पर बैक्टीरिया रोधक दवा से नहला कर आगे भेजा जाएगा। भेड़पालक भी साल में दो बार माइग्रेशन करते हैं। ग्रीष्मकाल में भेड़ पालक अपनी भेड़ों को लेकर अप्रैल माह से उच्च हिमालय की तरफ जाने लगते हैं। सितंबर माह में उच्च हिमालय से घाटियों की तरफ आने लगते हैं । नवंबर, दिसंबर माह तक भावर और तराई पहुंच जाते हैं। दोनो बार के माइग्रेशन के दौरान भेड़ों को बैक्टीरिया और परजीवियों से मुक्त कराने के लिए बैक्टीरियामुक्त दवा से मिश्रित टैंकों में नहलाया जाता है। इन टैंकों में भेड़ पूरी तरह डुबा कर आगे बढ़ाया जाता है । टैंक इस तरह बने होते हैं कि एक तरफ से भेड़ जाएगी और टैंक की पानी में पूरी तरह डूबते हुए दूसरी तरफ निकल जाती है मुनस्यारी से आगे धापा नामक स्थान पर पशुपालन ने बार्डर एरिया डेवलेपमेंट प्रोग्राम के तहत टैंक बनाया है। धापा उच्च हिमालयी जोहार और रालम क्षेत्र के मार्ग पर पड़ता है । दोनों तरफ जाने वाली भेड़ों को यहां पर बैक्टीरिया मुक्त किया जाता है। धारचूला में पांगू में पशुपालन फार्म में टैंक बना है, परंतु यहां पर व्यास, दारमा की तरफ जाने वाली भेड़ ,बकरियां वर्तमान में पांगू से होकर नहीं जाती हैं। जिसे देखते पशुपालन विभाग ने धारचूला से लगभग पांच किमी दूर दोबाट नामक स्थान पर प्राकृतिक नाले को इसके उपयोग में लिया है। यहां पर भेड़ बकरियों के एक अलग से रास्ता बनाया गया है। इस मार्ग पर एक समय में एक ही भेड़ बकरी चल सकती है। इस मार्ग पर पानी के ताल में मेडिकेटेड दवा डाल दी जाती है। चिकित्साधिकारी ने बताया कि भेड़ को बैक्टीरिया और परजीवी मुक्त करने के लिए विभाग ने पूरी तैयारियां कर ली हैं। उच्च हिमालय को जाने वाली भेड़ों को बैक्टीरिया निरोधी दवा में नहला कर आगे भेजा जा रहा है। इससे उनके शरीर में रहने वाले परजीवी भी नष्ट होंगे और उच्च हिमालयी बुग्यालों में वह तंदुरस्त रहेंगी । लेकिन सर्दियों में करीब 6 महीने तक ये चरवाहे परिवार से दूर रहते हैं। चरवाहों के एक समूह में करीब 3 से चार लोग रहते हैं। ये जंगल में अपने टैंट लगाकर वही रात बिताते हैं, अगले दिन भेड़ बकरियों को चराते हुए दूसरे स्थान तक पहुंच जाते हैं। एक झुंड में हजारों भेड़ बकरियां होती हैं। सबसे खास बात ये है कि भेड़ बकरियों के झुंड की रखवाली के लिए भोटिया नस्ल के कुत्ते इनके साथ होते हैं। ये कुत्ते भेड़ बकरियों की न सिर्फ इंसानों से रक्षा करते हैं, बल्कि इकी हिफाजत के लिए जंगली जानवरों से भी भिड़ जाते हैं। खानाबदोश जीवन जीने के दौरान कई बार इ चरवाहों की आमदनी भी हो जाती है। इच्छुक लोगों को भेड़ बकरी की बिक्री कर, या ऊन बेचकर ये अपने लिए कुछ रकम जुटा लेते हैं। इस तरह 6 महीने इन चरवाहों का खानाबदोश जीवन कटता है।हमारी संस्कृति का अंग रहे ये चरवाहे सरकारी उपेक्षा से आहत नजर भी आते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी से भेड़-बकरी पालन का काम करने वाले चरवाहे कहते हैं कि उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। सरकारी योजनाएं उन तक पहुंच नहीं पाती। सर्दियों में उके लिए विस्थापन और पुनर्वास की व्यवस्थाएं नहीं होती। उनके लिए अलग से कोई सोचता ही नहीं है। लिहाजा उन्हें खानाबदोश जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। भारत-चीन सीमा पर बाडाहोती भेड पालको का सबसे पंसदीदा क्षेत्र है। और हर वर्ष यहाॅ करीब दो दर्जन से अधिक भेड-बकरियों की टोली जून से सितबंर तक यहाॅ रहती है। इसी क्षेत्र मे पूर्व वर्षो मे चीन द्वारा कई बार घुसपैठ कर पालसियों के टैण्ट व राशन को भी नष्ट करने की घटना को अंजाम दिया गया था। इसके वावजूद चरवाहे भेड-वकरियों को इसी क्षेत्र मे ले जाना पंसद करते है। और भेड बकरियों के चुगान के साथ ही ये चरवाहे मजबूत सूचना तंत्र का भी काम करते है। भेड पालक कल्याण समिति चमोली के सचिव के अनुसार उन्है उम्मीद है कि भारत-चीन के बीच वर्तमान परिस्थिति सामान्य होने के बाद चरवाहों को बाडाहोती जाने की अनुमति भी मिल सकेगी।भेड पालन कल्याण समिति चमोली के सचिव एंव उत्तराखंड शीप एंव ऊल डेवलेपमेंट बार्ड के सदस्य कहते है कि चमोली जनपद की नीती-माणा घाटियो मे भेड पालको को आवागमन की कोई समस्या नही होती लेकिन शीतकाल मे जब भेड-बकरियों के साथ तराई व भाबर क्षेत्र मे पंहुचते है तो वहाॅ स्थानीय समुदाय के साथ ही वन विभाग भी बेहद परेशान करता है। भेड पालकों को तराई क्षेत्रों मे अपना पडाव अथवा शिविर बनाने के लिए कई बार भूमि दिए जाने की मांग पर वर्ष 2014 मे उत्तराख्ंड सरकार ने भेड पालकों का आवास स्थल/पशुशाला प्रयोग हेतु 180वर्ग गज फीट भूमि का आवंटन किए जाने हेतु ऊधम सिंह नगर व हरिद्वार जनपदो को छोडकर शेष सभी जिलाधिकारियों को निर्देश जारी किए गए थे। लेकिन इस पर भी 8 वर्ष बीतने के बाद भी कोई कार्यवाही नही कर सकी।
पालको ने कहा कि भेड पालको के साथ तराई क्षेत्र मे हो रही घटनाओं से क्षुब्ध होकर कई भेडपालक अब भेड पालन के ब्यवसाय से पीछे हटने लगे है। जबकि सरकारे पलायन रोकने व सीमावर्ती क्षेत्र मे मजबूत सूचना तंत्र का काम करने मे अग्रणी भेड पालन ब्यवसाय को चुनने के लिए प्रेरित करती रही है। प्रतिवर्ष अप्रैल माह के दूसरे सप्ताह में केदारघाटी के सीमांत गांवों के भेड़पालक अपनी भेड़ बकरियों के साथ मखमली बुग्यालों की ओर रूख करते हैं तथा ग्रीष्मकाल के छह माह तक अपने भेड़ों के चुगान के साथ वह यहीं पर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इस दौरान उन्हें बुग्यालों में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है