उत्तराखंड में इस तरह मनाया जाता है बैसाखी

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उत्तराखंड में इस तरह मनाया जाता है बैसाखी
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

द्वाराहाट की परंपरागत लोक संस्कृति से जुड़ा उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध स्याल्दे बिखौती का मेला पाली पछाऊँ क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय रंग रंगीला  त्योहार है. चैत्र मास की अन्तिम रात्रि ‘विषुवत्’ संक्रान्ति 13 या 14 अप्रैल को प्रतिवर्ष द्वाराहाट से 8 कि.मी.की दूरी पर स्थित विमांडेश्वर महादेव में बिखौती का मेला लगता है. बिखौती की रात के अगले दिन वैशाख मास की पहली और दूसरी तिथि को द्वाराहाट बाजार में स्याल्दे बिखौती का मेला लगता है. मेले की तैयारियां आसपास के गांवों में एक महीने पहले से ही शुरु हो जाती हैं. कौतिक व मेला परंपरा देवभूमि उत्तराखंड की विशिष्ट पहचान रही है। कई मेले महज रस्मअदायगी तक सिमट गए हैं तो कुछ को बुजुर्गवार संस्कृतिप्रेमी धरोहर की भांति सहेज युवा पीढ़ी को जोड़ने में जुटे हैं। इन्हीं में एक है पौराणिक द्वारका यानि द्वाराहाट का ऐतिहासिक स्याल्दे बिखौती कौतिक। कत्यूरकालीन सभ्यता संस्कृति के गवाह इस मेले की शान आल और नौज्यूला धड़े में कुमाऊं के 31 परगने व गढ़देश (गढ़वाल) समेत 500 से ज्यादा ग्राम पंचायतें अभिन्न हिस्सा थीं। आल धड़ा अल्मोड़ा व कत्यूरघाटी (गरुड़) जबकि नौज्यूला धड़ा रामनगर व हल्द्वानी के गांवों को समेटे था। स्वतंत्रता आंदोलन में यहां बने झोड़ा गीत क्रांतिवीरों को नई ताकत देते रहे।पौराणिक द्वारका यानि द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती कौतिक की परंपरा कत्यूरकाल से शुरू हो गई थी। कथानक के अनुसार लोक संस्कृति व परंपरा के पैरोकार रहे कत्यूरी राजा सालदेव की अगुआई में स्याल्दे मेले का श्रीगणेश हुआ। स्याल्दे पोखर (वर्तमान शीतला पुष्कर मैदान) भी राजा सालदेव की ही देन है। मेले से पूर्व महास्नान की परंपरा भी उन्होंने ही शुरू की थी। पुराना गौरव लाने में जुटे संस्कृति कर्मीस्थापत्यकला एवं मंदिरों की नगरी द्वाराहाट के पूरब दिशा में खिरो नदी के बाए भूभाग में अल्मोड़ा व कत्यूरघाटी आल धड़ा और पश्चिम में सल्ट, स्याल्दे, रामनगर व हल्द्वानी के गांव समाहित थे। वहीं पश्चिम दिशा में चौखुयिा, सल्ट व स्याल्दे ही नहीं नौज्यूला धड़े में रामनगर व हल्द्वानी के गांव जुड़े थे। संस्कृति प्रेमी अब इस ऐतिहासिक मेले को उसका पुराना गौरव दिलाने में जुट गए हैं। पलक झपकते ही रचे जाते हैं गीतस्याल्दे बिखौती कौतिक की पहचान समसामयिक व तात्कालिक घटनाक्रमों पर त्वरित झोड़ा गीतों की रचना से भी है। बुजुर्ग संस्कृति कर्मी आज भी ओढ़ा भेंटने से पूर्व राजनीतिक, सामाजिक व मौजूदा घटनाक्रमों पर चर्चा कर कविताएं रचते हैं, जिन्हें महिला पुरुष गाते थिरकते हैं।कौतिक की शुरुआत कत्यूरकाल से ही मानी गई है। झोड़ा, चांचरी, भगनौल आदि का उद्भव भी उसी दौर में हुआ। आजादी की लड़ाई के दौरान स्याल्दे बिखौती के मेले में बने झोड़ा गीतों से क्रांतिकारियों में नई ऊर्जा भरी जाती थी। आजादी के बाद तक रानीखेत, अल्मोड़ा, बागेश्वर व भाबर से लोग बिखौती में आते थे। यह हमारी धरोहर है। इसे जीवंत रखने के लिए सरकार को भी प्रयास करने चाहिए।ऐतिहासिक स्याल्दे बिखौती उत्तर भारत के प्रमुख मेलों में से एक रहा है। समसामयिक विषयों और घटनाओं पर आधारित यहां के झोड़ों को संदेशवाहक के तौर पर माना गया है। इन विधाओं समेत विभिन्न वाद्ययंत्र बजाने वाले कलाकार अब खो से गए हैं। इन विरासतों के संरक्षण को स्याल्दे मेले का संरक्षण बेहद जरूरी है। सरकार को चाहिए कि वह द्वाराहाट में सांस्कृतिक केंद्र स्थापित कर प्रशिक्षण शुरू करे। कत्यूकरकाल में शुरू ऐतिहासिक स्याल्दे बिखौती कौतिक (मेला) अपने पुराने गौरव को हासिल करने की राह चल पड़ा है। करीब 64 वर्ष पूर्व मेले से अलग हुए ईड़ा, जमीनी वार पार ग्राम पंचायतें पुन: लोक परंपरा का हिस्सा बनेंगी। खास बात कि छह दशक पहले की तरह तीनों ग्रामसभाओं के रणबांकुरे नगाड़े निषाण लेकर 30 किमी का सफर तय कर ओढ़ा भेंटने की रस्म निभाएंगे। यानि अबकी कौतिक में तीन गांवों की संख्या बढ़ जाएगी। कुछ और ग्राम पंचायतों के भी लोक परंपरा से जुडऩे की उम्मीद है।दरअसल, वर्ष 1958 की बिखौती के बाद नौज्यूला धड़े की ईड़ा, जमीनीवार पार ग्राम पंचायतें मेले से अलग हो गई थी। मगर इस बार तीनों के गांवों के बुजुर्गों प्रतिनिधियों ने एक बार फिर लोक परंपरा का अभिन्न हिस्सा बनने का फैसला लिया है। अब गांवों की संख्या बढकर 35 से 38 हो जाएगी। इसका खुलासा करते हुए मेला समिति नगर पंचायत अध्यक्ष ने कहा कि ग्राम प्रतिनिधियों से बात हो गई है। बैसाख के अंतिम गते 14 अप्रैल को बाटपुजै (छोटी स्याल्दे) के बाद ओड़ा भेटने के लिए नौज्यूला धड़े के साथ पहुंचेंगे। मेला समिति अध्यक्ष ने कहा कि अन्य धड़ों से छूट गए गांवों को भी मेले से पुन: जोडऩे के प्रयास किए जा रहे हैं। इस मामले में ईड़ा के ग्रामप्रधान ने कहा कि स्याल्दे मेला प्रमुख रूप से तल्ला, बिचल्ला मल्ला दोरा की पहचान है। अपनी संस्कृति को सहेजने संवारने के मकसद से आम सहमति के बाद 64 वर्षों के बाद पुन: स्याल्दे मेले का हिस्सा लेने का निर्णय लिया गया है। आज यद्यपि नवयुवकों की नई पीढ़ी अपने परंपरागत त्योहारों और मेले उत्सवों के प्रति उदासीन होती जा रही है. पर्वतीय इलाकों में भी महानगरीय संस्कृति के प्रभाव के कारण तीज त्योहारों का रंग दिन प्रतिदिन फीका पड़ता जा रहा है. मैदानों की ओर निरंतर रूप से पलायन के कारण त्योहारों के अवसर पर उमड़ने वाली लोकसंस्कृति की चमक दमक अब कम होती जा रही है. पर सन्तोष का विषय है कि बागेश्वर में उतरैणी का मेला और द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती का मेला उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति की पहचान आज भी बनाए हुए हैं.द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती मेले के संबंध में कहा जा सकता है कि इस त्योहार के आयोजन में समाज का प्रत्येक वर्ग बड़े उत्साह के साथ बढ़ चढ़ कर अपनी भागीदारी निभाता आया है. बूढ़े हों या जवान बच्चे हों या महिलाएं प्रतिवर्ष कुछ नई उमंग और नए अंदाज से मेले में हिस्सा लेते हैं. पाली पछाऊँ क्षेत्र के लोग स्याल्दे बिखौती मेले के माध्यम से न केवल अपनी पुरातन परंपराओं और कला संस्कृति को जीवित रखते आए हैं,बल्कि यहां के लोकगायकों तथा लोक कलाकारों ने भी कुमाउंनी साहित्य, विशेषकर पाली पछाऊं के लोक साहित्य की समृद्धि में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. स्याल्दे बिखौती मेले की एक विशेषता यह भी है कि इस क्षेत्र के लोक गायक हर साल कोई ऐसा नया लोकगीत या कोई नया झोड़ा चला देते हैं जो अपनी समसामयिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है बाद में ये ही झोड़े या लोकगीत पूरे साल लोगों की जुबान में रटते रहने के कारण जनसामान्य में अत्यंत लोकप्रिय भी हो जाते हैं. इस मेले की पहचान पूर्व से ही संस्कृति के ध्वजवाहक के तौर पर रही है। इस धरोहर को जिदा रखने के लिए सभी को आगे आना होगा।