इस बार भी लड़खड़ा न जाएं हजारों करोड़ की उम्मीदें?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड विधानसभा का बजट सत्र अब 14 से 20 जून तक देहरादून में होगा। सरकार की ओर से संशोधित कार्यक्रम विधानसभा सचिवालय को भेजा दिया गया है। पहले बजट सत्र सात से 14 जून तक ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में प्रस्तावित था।इस बीच चार धाम यात्रा, राज्यसभा चुनाव, मौसम जैसे कारणों का उल्लेख करते हुए बजट सत्र की तिथि आगे बढ़ाने या फिर इसे देहरादून में ?ही आयोजित करने की मांग विधायकों की ओर से उठाई जा रही थी।गांव-गांव, शहरी बस्तियों में खुशहाली व ढांचागत विकास के सुनहरे सपनों को दिखाकर लाया जाने वाला वार्षिक बजट उम्मीदों के मोर्चे पर लड़खड़ा रहा है।जन आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को लुभावनी घोषणाओं की चाशनी में मिलाकर आकार के लिहाज से भारी-भरकम बजट तैयार करने में दरियादिली दिखाई जा रही है, लेकिन खर्च में हर साल हाथ तंग रह जाना सवाल खड़े कर रहा है।बजट आकार और खर्च में अंतर की हालत ये है कि पिछले दो वित्तीय वर्षों में यह 20 हजार करोड़ से होता हुआ 24 हजार करोड़ को पार कर चुका है। इस वजह से चालू वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट आकार को वास्तविकता के समीप रखने का दबाव सरकार पर बढ़ गया है। उत्तराखंड में बजट आकार और खर्च के बीच बढ़ती दूरी पाटने की चुनौती बढ़ गई है। पूरे वर्षभर में प्रदेश की तस्वीर बदलने का कागजों पर दावा करने वाला बजट धरातल पर कुछ और ही कहानी बयान कर रहा है।बजट प्रविधान, खर्च के लिए उसकी स्वीकृति और फिर वास्तविक खर्च का अंतर यह बता रहा है कि बजट में आम जन से किए जाने वाले वायदे पूरे नहीं हो रहे हैं। इसका बड़ा कारण बजट के निर्माण और उसके उपयोग में दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी है। ये स्थिति किसी विशेष वर्ष की नहीं, बल्कि राज्य बनने के बाद से लगातार बनी हुई है। बीते दो वित्तीय वर्षों में कोरोना की मार बजट खर्च पर पड़ी है, लेकिन संक्रमण से हालात सुधरने के बावजूद खर्च को लेकर तेजी दिखाई नहीं दी। पिछले वित्तीय वर्ष 2021-22 में बजट आकार और खर्च में 24379.30 करोड़ का अंतर रहा, जबकि इससे पहले वित्तीय वर्ष 2020-21 में यह अंतर 20,437 करोड़ था।बीते दोनों ही वर्षों में जिसतरह यह अंतर बढ़ा है, उससे चालू वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए नया बजट तैयार कर रही धामी सरकार के समक्ष भी जवाबदेही का संकट रहना तय है। इस खामी के कारण राज्य के भीतर विषम भौगोलिक क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिकविषमता बढ़ रही है। सरकार ने पार्टी के चुनाव दृष्टिपत्र को अंगीकार किया है। उसमें किए गए संकल्पों को पूरा करने के लिए सरकार को अलग से आर्थिक साधन जुटाने होंगे। इसलिए सरकार पर खुद के संसाधनों से राजस्व बढ़ाने की भी चुनौती है। पंचम वित्त आयोग ने भी राज्य सरकार को व्यय नियंत्रण के साथ संसाधनों को जुटाने के उपाय करने का सुझाव दिया है। अनुत्पादक खर्चों को कम कर ऐसे निवेश करने पर जोर दिया गया है, जिससे राज्य के राजस्व में बढ़ोतरी हो सके। राज्य सरकार के लिए केंद्रीय अनुदान राजस्व का प्रमुख स्रोत है। लेकिन केंद्र पोषित योजनाओं के तहत आवंटित धनराशि का भी पर्याप्त इस्तेमाल नहीं हो पाता है। वर्ष 2019-20 में 8308.76 करोड़ अनुदान प्राप्त हुआ था। वित्तीय वर्ष 2022-23 में सरकार को 20835.30 करोड़ का केंद्रीय अनुदान प्राप्त होने का अनुमान है। सूत्रों का मानना है कि यदि केंद्र मुआवजा देने से इनकार करता है तो राज्य सरकार को सालाना करीब पांच हजार करोड़ रुपये का नुकसान होगा। यानी राजस्व घाटे के एवज में आयोग की सिफारिश पर जो अनुदान राज्य को प्राप्त हो रहा है, लगभग उसके बराबर धनराशि से राज्य को हाथ धोना पड़ जाएगा।सरकार के सामने खर्च संभालने की चुनौती भी है। वेतन और पेंशन का खर्च बढ़ रहा है। वेतन खर्च की सालाना आठ प्रतिशत और पेंशन खर्च सात प्रतिशत वृद्धि दर है। नए ऋणों पर आठ प्रतिशत ब्याज दर का भुगतान अलग से है। इसे काबू में लाना सरकार के लिए आसान नहीं है। हिमालयी राज्य उत्तराखंड को प्रकृति ने खूबसूरती और नेमतों से जमकर नवाजा है, लेकिन आम आदमी के लिए खुशहाली अब भी दूर का ख्वाब है। हकीकत ये है कि आमदनी के मौजूदा बेहद सीमित संसाधनों के बल पर राज्य अपने नागरिकों के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं जुटा पा रहा है। ऐसे में जनता के ख्वाब पूरे होने की केंद्रीय मदद पर टकटकी बंधी है। केंद्र और राज्य में डबल इंजन के दम पर पेयजल, बिजली, सड़कें, आवास, शहरी सुविधाओं समेत ढांचागत विकास की इन उम्मीदों में करीब 18 हजार करोड़ बाह्य सहायतितत योजनाएं हैं। उत्तराखंड को आर्थिक रूप से अपने कदमों पर खड़ा होने के लिए मजबूत अवस्थापना सुविधाओं की दरकार है। केंद्र और राज्य के संयुक्त प्रयासों से जिन ईएपी परियोजनाओं को मंजूरी मिली है, सरकार के लक्ष्य के मुताबिक राज्य में वर्ष 2022 तक सबको घर, पेयजल और बिजली दी जानी है। किसानों की आमदनी को दोगुना किया जाना है। यह सब केंद्रीय योजनाओं में मिलने वाली धनराशि के सदुपयोग के बूते ही मुमकिन गठन के 22 साल बाद भी हाथ नहीं लगा है। इसका समाधान चिकित्सा शिक्षा, विशेष रूप से सरकारी मेडिकल कालेजों, नर्सिंग व पैरामेडिकल कालेजों के साथ आयुष कालेजों के व्यापक होते नेटवर्क में तलाश किया जा है। हालांकि वर्तमान बजट खर्च के आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं। वित्तीय वर्ष के माह हैं, लेकिन केंद्रीय योजनाओं की राशि का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाया है। हालत यही रही तो केंद्र और राज्य के लक्ष्य अधूरे रहने का खतरा है। स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली उत्तराखंड की ऐसी मर्मांतक पीड़ा है, जिसका इलाज राज्य रहा है। केंद्र सरकार हर जिले में एक मेडिकल कालेज के फार्मूले पर जोर दे रही है। परिणाम स्वरूप राज्य के पर्वतीय जिलों में भी मेडिकल कालेजों को सपना पूरा होने की उम्मीद जगी है।लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।