आठ पहाड़ी जिलों को मिलाकर उत्तराखंड बनाने के पक्ष में थे मुलायम
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
अलग राज्य उत्तराखंड विधिवत रूप से भले ही नौ नवंबर 2000 अस्तित्व में आया हो मगर राज्य की नींव 1994 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में पड़ी। राज्य आंदोलनकारी ताकतें व संगठन खुले तौर पर ना सही अनौपचारिक रूप से इसे स्वीकार करते हैं।कौशिक समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों को स्वीकार कर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने साफ कर दिया था कि वह आठ पहाड़ी जिलों को मिलाकर उत्तराखंड राज्य के पक्षधर रहे हैं। उन्हीं के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश विधानसभा में अलग राज्य का संकल्प भी पारित हुआ था। अलग राज्य आंदोलन जब उफान पर था तो जनवरी 1993 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अपने भरोसेमंद नगर विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता छह सदस्यीय कमेटी का गठन किया था। जिसमें उत्तराखंड मूल के आईएएस डॉ आरएस टोलिया भी एक सदस्य थे जबकि अन्य में मुख्य सचिव के अलावा सपा बसपा गठबंधन सरकार के मंत्री। जनवरी 1994 को समिति अस्तित्व में आ गई। इस समिति की पांच बैठकें हुई, पहली लखनऊ, दूसरी अल्मोड़ा, तीसरी पौड़ी गढ़वाल, चौथी काशीपुर, पांचवीं लखनऊ में। इन बैठकों में राजनीतिक प्रतिनिधियों के साथ शिक्षाविद, समाजसेवी व बुद्धिजीवी शामिल हुए समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया। जिसमें आठ पहाड़ी जिलों को बनाकर अलग राज्य उत्तराखंड बनाने, गैरसैंण को राजधानी बनाने, हिमाचल मॉडल की तर्ज पर अलग राज्य बनाने, चकबंदी भू बंदोबस्त लागू करने की मुख्य सिफारिश शामिल थी। ‘सभी प्रतिभागियों का मानना था कि पृथक् राज्य की माँग उत्तराखंड क्षेत्र की जटिल भौगोलिक स्थिति तथा भिन्न पारिस्थितिकी को देखते हुए पर्यावरण सम्मत विकास के दृष्टिकोण से की जा रही है.इसी तर्कसम्मत आधार पर देश की राजनैतिक परिस्थितियों में यह पहला अवसर है जब एक राज्य अपनी ही सीमाओं के अंतर्गत एक और राज्य के गठन की माँग कर रहा है. इसमें क्षेत्रवाद और पृथकतावाद जैसी कोई भी बात नहीं है. क्षेत्र के विकास के लिए अलग उप-योजना बनाए जाने से भी समस्या का समाधान नहीं हो पाया है, क्षेत्रीय विषमताओं की स्थिति बनी हुई है. विपुल प्राकृतिक संपदाओं के बीच भी उत्तराखंड के लोग गरीब हैं इसलिए अब उन्हें अपने संसाधनों का उचित उपयोग कर क्षेत्रीय विकास में भागीदारी का अवसर दिया जाना चाहिए.’’ 26 वर्ष पूर्व अविभाजित उत्तर प्रदेश में गठित कौशिक समिति ने भी गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी बनाए जाने की सिफारिश की थी। तब भी 68 प्रतिशत जनता ने गैरसैंण के पक्ष में ही अपनी राय दी थी। वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि मुलायम सिंह यादव का उत्तराखंड से अगाध प्रेम था. उनका साफ कहना है कि उत्तराखंड का वास्तव में अगर कोई नेता हितैषी था तो वे मुलायम सिंह यादव थे. मुलायम सिंह का उत्तराखंड से इतना प्रेम था कि उनके उत्तराखंड से केवल राजनीतिक संबंध ही नहीं, बल्कि पारिवारिक संबंध भी स्थापित हुए. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि केवल राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए मुलायम सिंह यादव को खलनायक बनाया, लेकिन उत्तराखंड के वाकई मुलायम सिंह एक बेहद बड़े हितैषी थे. उत्तराखंड राज्य आंदोलन में मुलायम सिंह यादव की छवि को इतना नकारात्मक किया गया कि यहां के जनमानस में मुलायम सिंह के खिलाफ एक खलनायक वाली तस्वीर बन गई. सपा नेता बताते हैं कि अगर वास्तविक रूप से दस्तावेजों में देखा जाए तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन की कई बड़ी किताबें हैं, जिनमें इस बात का साफ जिक्र किया गया है कि मुलायम सिंह यादव उत्तराखंड राज्य बनने के पक्षधर थे न कि खिलाफ.वहीं, इसके अलावा सपा नेता सत्यनारायण सचान बताते हैं कि उस दौर में समाजवादी पार्टी में पहाड़ मूल के कई बड़े नेताओं ने अपनी अच्छी पहचान बनाई और अच्छी पकड़ बनाई उन नेताओं में से हैं जो कि पूरे पहाड़ में अपनी धाक रखते थे और इन लोगों की स्वीकारिता जनमानस में भी बेहद ज्यादा थी. समाजवादी नेता और उत्तराखंड के संयुक्त उत्तर प्रदेश में रहते मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव का सोमवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। उनके निधन पर जहां देश भर में शोक व्यक्त किया जा रहा है, वहीं उत्तराखंड इस मौके पर खामोश नजर आ रहा है। यहां के राजनेताओं की भी अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए प्रतिक्रियाएं दी हैं।मुलायम सिंह के उत्तराखंड से जुड़े संदर्भों की बात करें तो दो बातें प्रमुख रूप से उभर कर आती हैं। पहला, उनके मुख्यमंत्री रहते ही उत्तराखंड ने ऐसा बुरा दौर देखा, जैसा शायद अंग्रेजी दौर में भी नहीं देखा, या शायद कुख्यात गोरखा राज में देखा हो। उस दौर में राज्य के हल्द्वानी सहित खासकर मैदानी शहरों में समाजवादी नेता ने जैसा तांडव मचाया, उसकी बुरी छवियां अब भी लोगों के मनमानस से धूमिल नहीं हुई हैं।यही दौर था जब पहले से अपनी कठिन भौगोलिक परिस्थितियों व दुर्गमता से परेशान पहाड़ के लोग मंडल कमीशन के आने व अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसद आरक्षण लागू होने के साथ अपने भविष्य के प्रति चिंतित हुए और मन में दशकों से दबी अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के प्रति सुदूर गांव-गांव व गली-गली तक मुखर होने के साथ आंदोलित हुए। मुलायम ने राज्य के दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों तक पुलिस के साथ ही विद्यालयों में शिक्षकों के रूप में अपनी यादव जाति के लोगों को भेजकर इस आक्रोश को और बढ़ाने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।उत्तराखंड आंदोलन देश का सबसे बड़ा गांधीवादी आंदोलन बना और जब उत्तराखंडियों ने अपनी ताकत दिखाने के लिए दो अक्टूबर 1994 को दिल्ली कूच किया तो मुलायम ने गोरखा राज से भी बड़ा दमन चक्र चलाया, जिसमें न जाने कितने उत्तराखंडी आंदोलनकारी शहीद हुए और माताओं-बहनों को अमानवीय पाशविक यातनाएं झेलनी पड़ीं। फलस्वरूप अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की जयंती का दिन हमेशा के लिए उत्तराखंड के लिए ‘काला दिन’ बन गया। इस दौरान मुलायम का वह बयान भी चर्चा में रहा, जिसमें उन्होंने उत्तराखंड वासियों के लिए कहा था, ‘मैं उनकी परवाह क्यों करूं, कौन सा उन्होंने मुझे वोट दिया थालेकिन मुलायम सिंह यादव का उत्तराखंड के प्रति एक दूसरा चेहरा तब सामने आया, जब उन्होंने उत्तर प्रदेश के उत्तरी हिस्से को अलग करके उसकी एक अलग राज्य के रूप में स्थापना के लिए 4 जनवरी, 1994 को अपने नगर-विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में एक छह सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति में डॉ. रघुनंदन सिंह टोलिया भी एक सदस्य थे।‘कौशिक समिति’ के नाम से जानी गयी इस समिति की पहली बैठक 12 जनवरी 1994 को लखनऊ में आयोजित की गई जिसमें तय किया गया कि प्रस्तावित उत्तराखंड राज्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए समिति सभी क्षेत्रीय विधायकों, विधान परिषद् सदस्यों, लोक सभा सदस्यों, उत्तराखंड में स्थित तीनों विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, शोध संस्थानों के विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, मान्यता प्राप्त राजनैतिक दलों के जिला अध्यक्षों, महिला संगठनों, अनुसूचित जाति-जनजाति संगठनों, प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, कृषि वैज्ञानिकों तथा आम जनता से प्रस्तावित राज्य के सम्बन्ध में सुझाव आमंत्रित करने के लिए अल्मोड़ा (कुमाऊँ) और पौड़ी (गढ़वाल) में दो-दो दिन के सेमीनार आयोजित कराएगी।राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानों के मुख्य रूप से अंग्रेजी और कुछ पारिभाषिक हिंदी में दिये गए व्याख्यानों के बाद 30 अप्रैल 1994 को जमा की गई अपनी रिपोर्ट में कौशिक समिति ने अनेक अन्य सिफारिशों के अलावा कहा, ‘‘सभी प्रतिभागियों का मानना था कि पृथक राज्य की मांग उत्तराखंड क्षेत्र की जटिल भौगोलिक स्थिति तथा भिन्न पारिस्थितिकी को देखते हुए पर्यावरणसम्मत विकास के दृष्टिकोण से की जा रही है।इसी तर्कसम्मत आधार पर देश की राजनैतिक परिस्थितियों में यह पहला अवसर है जब एक राज्य अपनी ही सीमाओं के अंतर्गत एक और राज्य के गठन की मांग कर रहा था। इसमें क्षेत्रवाद और पृथकतावाद जैसी कोई भी बात नहीं है। क्षेत्र के विकास के लिए अलग उप-योजना बनाए जाने से भी समस्या का समाधान नहीं हो पाया है, क्षेत्रीय विषमताओं की स्थिति बनी हुई है। विपुल प्राकृतिक संपदाओं के बीच भी उत्तराखंड के लोग गरीब हैं, इसलिए अब उन्हें अपने संसाधनों का उचित उपयोग कर क्षेत्रीय विकास में भागीदारी का अवसर दिया जाना चाहिए।’’मई 1994 में कौशिक समिति ने उत्तराखंड पृथक राज्य पर अपनी राय प्रस्तुत की व उत्तराखण्ड राज्य में 8 जनपदों व 3 मंडलों की स्थापना की सिफारिश की थी। 21 जून 1994 को मुलायम यादव सरकार ने कौशिक समिति की सिफारिश स्वीकार की थी। कौशिक समिति की रिपोर्ट के बाद भी हालांकि अनेक छोटे-बड़े आंदोलन होते रहे और इसी क्रम में 9 नवम्बर 2000 को देहरादून में राजधानी स्थापित करने के बाद ‘उत्तरांचल’ के रूप में जिस नए राज्य की नींव पड़ी, माना जाता है कि इसकी परिकल्पना का पूरा सपना 68 पृष्ठों में छपी कौशिक समिति की इसी रिपोर्ट में है।मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी की बुनियाद रखने के बाद पार्टी का पहला सम्मेलन उत्तराखंड के नैनीताल में रखा था। अपने पुत्रों के लिए बहुएं उन्होंने उत्तराखंड से चुनीं। लेकिन इस सब के बावजूद भी राज्य बनने के दो दशक के बाद भी सपा की साइकिल उत्तराखंड के पहाड़ों पर नहीं चढ़ पाई। यूपी की बसपा को तो यहां कुछ सीटें मिलती रही हैं, लेकिन सपा को जीत सिर्फ एक सीट पर एक बार ही नसीब हो पाई। वह जीत भी विधानसभा चुनाव में ना होकर लोकसभा में मिली थी। इसके पीछे मुलायम सिंह यादव के उत्तराखंड आंदोलन के दौरान किए गए जो कृत्य थे, जो उत्तराखंड आंदोलन के दौर में देखने को मिले थे। आज उनकी मृत्यु पर उनके उन कृत्यों को सकारात्मक तौर पर देखें तो उनकी वजह से ही उत्तराखंड के लोग अलग राज्य लेने के लिए संकल्प को मजबूत कर पाए और निर्णायक संघर्ष की राह पर आगे बढ़े थे और उन्होंने राज्य प्राप्ति की अपनी मंजिल को प्राप्त किया था।