प्रकृति का एक अमूल उपहार है लिंगुड़ा.
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जहा खूबसूरती के साथ साथ प्रकृति ने प्रदेश को जड़ी बूटियों का प्राकृतिक भंडार भी भेंट स्वरूप दिया है.नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण देवभूमि उत्तराखंड की वादियां हर किसी को आकर्षित तो करती ही हैं, यहां के पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद भी हर किसी को भाता है। पहाड़ी व्यंजन औषधीय महत्व के साथ ही पौष्टिकता से भी लबरेज हैं। यानी, हेल्थ एवं वेलनेस के लिहाज से भी ये खासे महत्वपूर्ण हैं।लिंगुड़ा, लिंगुड़ या ल्यूड़ का वानस्पतिक नाम डिप्लाजियम ऐस्कुलेंटम है। यह एथाइरिएसी कुल का खाने योग्य फर्न है। यह समूचे एशिया, ओसियानिया के पर्वतीय इलाकों में नमी वाली जगहों पर पाया जाता है। असम में धेंकिर शाक, सिक्किम में निंगरु, हिमाचल में लिंगरी, बंगाली में पलोई साग और उत्तर भारत में लिंगुड़ा कहा जाता है।बरसात से पहले गधेरों–जंगलों में उग आने वाला लिंगुड़ बाजार में नजर आने लगा है। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाने वाले इस पोष्टिक तत्वों से भरपूर लिंगुड़ नमी वाली जगह पर जून से अक्टूबर तक समुद्र तल से लगभग 2000m की उचाईयो पर पाया जाता है। आयूर्वेदिक गुणों से भरपूर प्राकृतिक सब्जी खाने के साथ साथ बाज़ारो में भी भेजी जाती है . हालांकि स्थानीय महिलाएं इसे खूब पहचानती हैं। लिंगुड़ की सब्जी कटहल की तरह स्वादिष्ट होती है। इसे बनाना बहुत आसान होता है। इसे बिलकुल उसी तरह छौंका जाता है जैसे हरी बीन्स।लिंगुड़ स्वाद के साथ पौष्टिक तत्वों की भरमार है। गाड़–गधेरों के पास नमी वाली जगहों में प्राकृतिक रूप से उगता है। हमारे यहां सब्जी के लिए उपयोग होने वाले लिंगुड़ का विदेशों में सलाद व अचार भी बनाया जाता है। जापान और मलेशिया में इसे तलकर पोल्ट्री उत्पादों के साथ मिलाकर व्यंजन तैयार किये जाते हैं, ऐसा करने से इन उत्पादों में मौजूद सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा होने वाली बीमारियों का अंदेशा कम हो जाता है। लिंगुड़ा विटामिन, आयरन और कैल्शियम अच्छा स्रोत है। लिंगुड़ा जंगल से बाहर निकलकर कस्बों–शहरों में अपनी जगह बना चुका है। पहाड़ से मंडी में भी लिंगुड़ पहुंचता है। बाजार में इसकी कीमत 70 से 80 रुपये किलो तक है। पुरातन काल से ही ऋषि मुनियों एवं पूर्वजों द्वारा पौष्टिक तथा रोगों के इलाज के लिए विभिन्न प्रकार के जंगली पौधों का उपयोग किया जाता रहा है। वैसे तो बहुत सी पहाड़ी सब्जियां खायी हैं, जिनमें से लिंगुड़ा भी एक है, कुछ लोगों ने इस सब्जी का आनन्द जरूर लिया होगा। यह जंगलों में स्वतः ही उगने वाली फर्न है, जिसका उपयोग हम ज्यादा से ज्यादा सब्जी बनाने तक ही कर पाते हैं। लेकिन पलायन के कारण नई जनरेशन इस सब्जी को भूलती जा रही है। शायद वो ये नहीं जानते की हम प्रकृति के दिए हुए इस अनमोल उपहार जो की कई रोगो में लाभदायक है उसे खुद से दूर करते जा रहे है, साथ ही हमे अपने उत्तराखंड की इस तरह की औषधीय गुणों को ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए, आज चमोली जिले की कुछ महिलाओं ने हमारे सामने पेश किया है, जिन्होंने पहाड़ों में बहुतायत मात्रा में पाए जाने वाले लिंगुडे़ का अचार बनाकर उसे बाजार में उतारा है। एक जैविक उत्पाद होने के साथ-साथ इसमें प्रचुर मात्रा में आइरन भी पाया जाता है। जिससे दिन प्रतिदिन इसकी मांग बढ़ती जा रही है। अगर पर्यटन के लिए पहाड़ी व्यंजनों को खोजा जाता है और कुशलतापूर्वक प्रभावी ढंग से लागू किया जाता है तो बहुत ही कम समय में राज्य खुद को पाक कला केंद्र के रूप में भी स्थापित कर लेगा।सचिव पर्यटन के मुताबिक हेल्थ एंड वेलनेस यहां के पर्यटन का अहम हिस्सा हैं। वर्तमान में हेल्थ एंड वेलनेस में इम्युनिटी भी महत्वपूर्ण हो गई है। राज्य में इम्युनिटी बढ़ाने वाले व्यंजनों की पर्यटन के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। अब तो राज्य के तमाम होटल, रेस्तरां आदि अपने यहां पहाड़ी व्यंजनों को परोसने लगे हैं। लिंगुडे का अचार पहले नहीं बनता जरूर बनता था लेकिन इस बार मांग बढ़ी है जोकि अच्छा संकेत है आने वाले समय में व्यावसायिक रूप से भी लिंगुड़ा की खेती करने पर विचार करने की जरूरत है। यह न सिर्फ स्वास्थ्य के हिसाब से अच्छी पहल होगी बल्कि लिंगुड़ा से रोजगार पाने का एक अवसर भी होगा।यह पलायन रोकने में कारगर होगी उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है। प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाये जाते है। हिमालयी क्षेत्र में रह रहे लोगों की आजीविका का जरिया भी बन सकती हैं।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।