उत्‍तराखंड में आपदा से निपटने की है चुनौती

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उत्तराखंड में आपदा से निपटने की है चुनौती

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

 

हिमालयी राज्य उत्तराखंड हर साल तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं दे रहा है। इसमें अकेले वनों की भागीदारी लगभग एक लाख करोड़ रुपये की है।इससे वनों के महत्व को समझा जा सकता है, लेकिन इन पर खतरे कम नहीं है। इसके अलावा आपदा की दृष्टि से भी यह राज्य कम संवेदनशील नहीं है। प्रतिवर्ष अतिवृष्टि, भूस्खलन जैसी आपदाओं में बड़े पैमाने पर जानमाल की क्षति हो रही है। यद्यपि, आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण को कदम उठाए गए हैं, लेकिन इस दिशा में अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। इस परिदृश्य के बीच वन बचाने के साथ ही आपदा से निबटने की चुनौती तंत्र के सामने है। न केवल उत्तराखंड बल्कि अन्य हिमालयी राज्यों के सामने में ये चुनौतियां मुंहबाए खड़ी हैं।वनों के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जंगलों का संरक्षण उत्तराखंड की परंपरा में शामिल रहा है। एक दौर में उत्तराखंड के लोग वनों से अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के साथ ही इन्हें पनपाते भी थे। वर्ष 1980 में वन कानूनों के अस्तित्व में आने के बाद से यहां वन और जन के इस रिश्ते में दूरी बढ़ी है। इस खाई को पाटने की चुनौती तंत्र के सामने है। इसके अलावा वन क्षेत्रों में होने वाले पौधारोपण में पौधों के जीवित रहने की सफलता का प्रतिशत, वनों को आग से बचाना, अवैध कटाना रोकना, जंगल और विकास में बेहतर सामंजस्य, स्थानीय प्रजातियों को महत्व देने के साथ ही वनों के संरक्षण में आमजन की भागीदारी बढ़ाने की चुनौतियां हैं। यद्यपि, ये ऐसी नहीं है कि इनसे पार न पाया जा सके। आवश्यकता हर स्तर पर दृढ़ इच्छाक्ति के साथ आगे बढ़ने की है। इसके अलावा वन क्षेत्रों में होने वाले पौधारोपण में पौधों के जीवित रहने की सफलता का प्रतिशत, वनों को आग से बचाना, अवैध कटाना रोकना, जंगल और विकास में बेहतर सामंजस्य, स्थानीय प्रजातियों को महत्व देने के साथ ही वनों के संरक्षण में आमजन की भागीदारी बढ़ाने की चुनौतियां हैं। यद्यपि, ये ऐसी नहीं है कि इनसे पार पाया जा सके। आवश्यकता हर स्तर पर दृढ़ इच्छाक्ति के साथ आगे बढ़ने की है। यही नहीं, आपदा और उत्तराखंड का तो मानो चोलीदामन का साथ है। हर साल ही एक के बाद एक प्राकृतिक आपदाओं से यह राज्य जूझ रहा है। इसे हिमालयी क्षेत्र की बिगड़ती सेहत से जोड़कर देखा जा सकता है।हर साल भूस्खलन, अतिवृष्टि जैसे कारणों से दरकते पहाड़ों ने वहां के निवासियों के सामने ठौर का संकट खड़ा कर दिया है। राज्य में आपदा प्रभावित गांवों की संख्या 400 से अधिक पहुंचना इसकी तस्दीक करता है। आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन के साथ ही आपदा प्रभावितों के पुनर्वास को कदम उठाए, लेकिन इस दिशा में अधिक गंभीरता से कदम उठाने की आवश्यकता है। विकास भी आवश्यक है पर्यावरण का संरक्षण भी। ऐसे में हिमालयी क्षेत्र की परिस्थितियों को ध्यान में देखते हुए आर्थिकी और पारिस्थितिकी के मध्य बेहतर सामंजस्य के साथ आगे बढऩा समय की मांग है। उत्तराखंड ने इस दिशा में कदम बढ़ाए. सतत विकास के लिए यह जरूरी भी है। जहां तक वनों पर मंडराते खतरे की बात है तो इससे निबटने को प्रभावी उपाय किए जा रहे हैं। इसे लेकर तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित की गई है। हिमालयी क्षेत्र आपदा के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। इस कड़ी में निर्माण कार्यों को वैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। फिर चाहे वह कार्य सड़क निर्माण से जुड़ा हो अथवा अन्य योजनाओं से। भूस्खलन का भी वैज्ञानिक ढंग से उपचार और प्रबंधन जरूरी है। ये जिम्मेदारी केवल सरकार ही नहीं, सबकी है। राज्य में जियो टैगिंग अध्ययन के अलावा ढलान, भूमि के संबंध में तकनीकी अध्ययन के साथ कदम बढ़ाने शुरु कर दिए हैं। आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन के लिए और क्या बेहतर हो सकता है, इसे लेकर मंथन चल रहा है। एक बात और हिमालय के संरक्षण के लिए सभी को सजग व संवेदनशील होना ही होगा। ऐसे में हिमालय के प्रति एक नई नीति की पहल होनी चाहिए। मात्र राज्यों में हिमालय को बांटकर हम आज तक कोई संरक्षण भी नहीं कर सके। सच तो यह है कि पिछले 100 साल में हिमालय में होने वाले बदलाव हमारे संज्ञान में ही नहीं हैं और ही उसका कोई लेखाजोखा हमारे पास है।अगर ऐसा कोई अध्ययन होता तो शायद हम सतर्क हो पाते और आने वाली समस्या से हिमालय की सुरक्षा पर व्यावहारिक कदम उठाते। हिमालय को राज्य का दर्जा दिया जाना मात्र इसका समाधान नहीं, बल्कि हिमालय की नीतियां और ढांचा कुछ अलग होने की आवश्यकता है। इसकी पारिस्थितिकी को समझते हुए यहां के विकास के ढांचे के प्रति गंभीरता दिखाना सबसे बड़ी आवश्यकता है। इन सबके बावजूद हिमालय हमारे साथ है और किसी किसी रूप में अनवरत सेवा में जुटा है।अभी भी हिमालय देशदुनिया की सेवा में उस निम्न स्तर पर नहीं पहुंचा जिसे हम दूर नहीं कर सकते हों, लेकिन यह भी अस्वीकार नहीं कर सकते कि हिमालय आज वैसा स्थिर नहीं है, जैसा अपने जन्म के समय में था। यह सारे देश की विरासत है। इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि राष्ट्रीय स्तर पर हिमालय के लिए अलग से सोच पनपे। तब शायद हम हिमालय के प्रति उन नीतियों को स्थान दे पाएंगे, जिनसे संरक्षण जुड़ा है।इसके लिए हम हिमालय के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक दृष्टिकोण पर चिंतन करते हुए हिमालय के संरक्षण के प्रति चिंता करें। इसी सोच के चलते व इस के महत्व और संरक्षण पर चर्चा के लिए हिमालय दिवस की कल्पना की गई थी। तबसे लगातार हर वर्ष हिमालय को लेकर चिंतन की यह शृंखला देशभर को संदेश देने का एक ऐसा प्रयत्न रहा है जिसमें सबकी भागीदारी आवश्यक है। हिमालय को नमन करने का मतलब प्रभु व प्रकृति के प्रति आदर प्रकट करने जैसा ही होगा! लेकिन ​22 साल में आपदा से निपटने को ​किसी तरह की नीति तैयार न होना। अब तक की सरकारों पर सवाल खड़े कर रहा है। हर बार आपदा आती है, सरकारें नुकसान को लेकर रिपोर्ट तैयार कर मुआवजा देकर पुर्नवास और संसाधनों को विकसित करने के लिए कई प्लानिंग भी बनाती हैं। लेकिन जब भी प्राकृतिक आपदा से सरकारों का सामना होता है, तो सभी सिस्टम बेबस नजर आता है। जिसके बाद सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ के अलावा तमाम देशभर की संस्थाएं अपनी जान पर खेलकर लोगों की जान बचाती हैं।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।