जोशीमठ त्रासदी जैसे हालात से जूझ सकता है उत्तराखंड 

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जोशीमठ त्रासदी जैसे हालात से जूझ सकता है उत्तराखंड 

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

जोशीमठ त्रासदी के बाद उत्तराखंड के कई हिस्सों से भयानक तस्वीरें सामने आ रही हैं। जोशीमठ ही नहीं उत्तराखंड में अलग-अलग हिस्सों में दरारें देखने को मिल रही है। ऋषिकेष से कुछ दूर, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, नैनीताल, उत्तरकाशी भी बड़ी दरारों से अछूते नहीं रह गए हैं। इन सभी जगहों की स्थिति भी डर है, आने वाले दिनों में जोशीमठ जैसी ना हो जाए। जोशीमठ की हर रोज नई तस्वीर देख कर कर्णप्रयाग के लोग भी दहशत में आ गए हैं। बदरीनाथ हाईवे के किनारे बसे इस क्षेत्र के करीब 25 मकानों में दो फीट तक दरारें पड़ी हैं। डर के कारण कई लोग अपने मकान छोड़ चुके हैं। अधिकांश परिवार खौफ के साये में अपने टूटे मकानों में ही रहने के लिए मजबूर हैं। हालात यह है कि भू-धंसाव के आठ महीने बाद भी प्रशासन और आपदा प्रबंधन की ओर से सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किए गए हैं, जिससे यहां रह रहे लोगों की जान पर खतरा मंडरा रहा है।
कर्णप्रयाग में 12 साल पहले सब्जी मंडी बनने के बाद भू-धंसाव होने के बाद लोगों के घरों में दरारें आनी शुरू हो गई थी। इसी दौरान कर्णप्रयाग-नैनीसैंण मोटर मार्ग के स्कबर भी बंद हो गए, लेकिन लोनिवि ने उनको खोलने की जहमत नहीं उठाई। इसकी वजह से सड़क का पानी तीनों क्षेत्रों के मकानों में पड़ी दरारों में रिसने लगा। फिर वहां अनियोजित कटिंग ने भी हालात और ज्यादा बिगाड़ दिए। धीरे-धीरे सड़क का पानी अन्य लोगों के घरों की दरारों में जाने लगा। इसकी वजह से पिछले साल जुलाई और अगस्त में वहां भू-धंसाव में तेजी आई और यहां अभी भी भूधंसाव हो रहा है।
पिछले साल बरसात के दौरान एनएचआईडीसीएल ने बदरीनाथ हाईवे पर रोड की कटिंग की, जिसकी वजह से बरसात में जमीन धंसने लगी। 25 मकानों में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ आ गई। लोगों के मकानों और आंगन में दो से तीन फीट तक चौड़ी दरारें आ गई हैं, लेकिन इनका अब तक ट्रीटमेंट नहीं किया गया है। इस क्षेत्र का प्रशासन के अलावा रुड़की आईआईटी के वैज्ञानिक भी दो बार निरीक्षण कर चुके हैं। सिंचाई विभाग के सहायक अभियंता का कहना है कि कर्णप्रयाग में बहुगुणानगर, सब्जी मंडी के ऊपरी भाग और सीएमपी बैंड के आसपास के ट्रीटमेंट का प्रस्ताव तैयार किया गया है। इस प्रस्ताव पर भूगर्भीय सर्वे कराया जा चुका है। पैसा स्वीकृत होते ही जल्द ट्रीटमेंट कार्य शुरू करवा दिया जाएगा। वहीं तहसीलदार कर्णप्रयाग का कहना है कि प्रशासन और भूगर्भीय वैज्ञानिकों ने प्रभावित क्षेत्र का सर्वेक्षण किया है। भूस्खलन रोकने के लिए जल्द प्रभावी उपाय किए जाएंगे।केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन की टनल अब लोगों के लिए जी का जंजाल बन रही है। इस टनल के कारण टिहरी का एक गांव के खतरे की जद में आ गया है। टिहरी की विधानसभा नरेंद्र नगर की पट्टी दोगी के अटाली गांव में ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन की सुरंग के निर्माण के लिए हो रहे विस्फोटों से संकट छाया हुआ है। यहां गांव के नीचे से होकर जाने वाली रेलवे लाइन सुरंग का निर्माण कार्य चल रहा है। टनल बनाने के लिए विस्फोट किए जा रहे हैं, जिससे अटाली गांव के खेतों और मकानों में दरारें आने लग गई हैं। अटाली के ग्रामीणों के अनुसार उन्होंने कभी रेलवे लाइन निर्माण का विरोध नहीं किया, लेकिन उनका पूरा गांव खतरे की जद में आ गया है। सरकार को उनकी सुरक्षा के लिए तत्काल ठोस कदम उठाने चाहिए।रुद्रप्रयाग जनपद का मरोड़ा गांव विकास का खामियाजा भुगत रहा है। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन निर्माण के लिए गांव के नीचे से टनल निर्माण के चलते कई घर जमींदोज हो चुके हैं, जबकि कई घर ध्वस्त होने की कगार पर हैं। मुआवजा मिलने पर अधिकांश लोग यहां से विस्थापित हो गए, लेकिन प्रभावितों को अभी तक मुआवजा नहीं मिला है। वे अभी भी मौत के साये में अपने टूटे-फूटे मकानों में बसर कर रह रहे हैं। यदि इन लोगों को जल्द ही यहां से हटाया नहीं गया तो बड़ी जनहानि हो सकती है। टनल निर्माण के चलते मरोड़ा गांव के घरों में दरारें पड़ चुकी हैं। स्थिति इतनी विकराल है कि गांव में कभी भी कहर बरप सकता है। रेल लाइन का निर्माण कार्य कर रही कार्यदायी संस्था की ओर से पीड़ितों के रहने के लिए टिन शेड बनाए गए हैं, लेकिन पीड़ित इन टिन शेडों में नहीं रह रहे हैं। प्रभावितों का कहना है कि टिन शेड में किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं है।शुरूआती चरण में प्रभावित परिवारों को रेलवे किराया देती थी, लेकिन अब किराया देना भी बंद कर दिया है और यहां से पलायन कर चुके लोग फिर गांव का रूख कर रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि विकास की जगह उनका विनाश हुआ है, उनका पुस्तैनी मकान उनकी आंखों के सामने जमीदोज हो रहे हैं। कभी मरोड़ा गांव में 35 से चालीस परिवार हुआ करते थे, लेकिन अब मात्र 15 से बीस परिवार रह गए हैं और जो परिवार यहां रह भी रहे हैं, उनके साथ कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है।सरोवर नगरी नैनीताल जो पर्यटन नगरी के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां 155 सालों से दरक रहे बलिया नाले के भूस्खलन का आज तक ट्रीटमेंट नहीं किया गया है। करोड़ों के प्रोजेक्ट के तहत जल्द काम करने का दावा तो किया जाता है, लेकिन हालात वही हैं। उधर नैनीताल का ऐतिहासिक बैंड स्टैंड भी भूस्खलन के चलते छह महीने से पर्यटकों के लिए बंद पड़ा हुआ है। आपदा मद में बजट की कमी नहीं होने का दावा करने वाली सरकार व जनप्रतिनिधि इसके ट्रीटमेंट के लिए बजट अब तक जारी नहीं करवा सके हैं। बलिया नाला जो नैनीताल के लिए नासूर बन गया है। यहां तक कि नैनीताल शहर सहित नैनी झील के लिए भी यह नाला एक बड़ा खतरा बन गया है। बीते कुछ वर्षों में भूस्खलन काफी बढ़ गया है।जानकारी के अनुसार बलिया नाले वर्ष 1867 में सबसे पहले भूस्खलन हुआ था, जिसका रिकॉर्ड भी है। फिर 1889 में हुए भूस्खलन से वीरभट्टी, ज्योलीकोट रोड ध्वस्त हो गई थी। 1898 में हुए भूस्खलन में यहां 27 लोगों की जान चली गई थी और एक बियर फैक्ट्री भी खत्म हो गई थी। वर्ष 1924 में एक बार फिर भूस्खलन घातक साबित हुआ और एक महिला और दो पर्यटकों की जान ले ली थी। तब एक रेस्टोरेंट, दुकानें, पुलिस चेक पोस्ट और राज्यपाल का गैराज भी तबाह हो गए थे। इस भूस्खलन की वजह से आसपास के क्षेत्र भी खतरे की जद में है। इसके ट्रीटमेंट के लिए जायका योजना से 620 करोड़ की योजना बनाई गई थी पर काम न हो सका। अब तक यहां से लगभग 153 परिवारों को शिफ्ट किया जा चुका है। यदि बलिया नाले का ट्रीटमेंट न किया गया तो यह पूरे शहर के लिए खतरा साबित हो सकता है। जानकारी के अनुसार इसके ट्रीटमेंट के लिए 192 करोड़ रुपये से कार्य करने और दो वर्ष में काम पूरा करने के निर्देश आपदा प्रबंधन सचिव ने दिए हैं। दरक रहा जोशीमठ, धंस रहे घर, खतरे में शहर का अस्तित्व खतरे की जद  में है. मानव जीवन और उनके पारिस्थितिकी तंत्र की कीमत पर किसी भी विकास की जरूरत नहीं है और अगर ऐसा कुछ भी होता है, तो उसे युद्ध स्तर पर तत्काल रोकना राज्य और केंद्र सरकार का दायित्व है. उत्तराखंड के पर्यावरण को बचाने के लिए एक बड़े आंदोलन की जरूरत महसूस की जा रही है।

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।