डेढ़ सौ साल से हो रहा है भूस्खलन, अब तक न ट्रीटमेंट न हुआ 

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डेढ़ सौ साल से हो रहा है भूस्खलन, अब तक ट्रीटमेंट हुआ 

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

देश-दुनिया के खूबसूरत पर्यटन स्थलों में शुमार नैनीताल के अस्तित्व पर खतरा मडरा रहा है। बलियानाला के साथ ही ठंडी सड़क के अलावा टिफिनटॉप तथा चायनापीक की पहाड़ी की दरार बड़े खतरे का संकेत दे रही हैं। अवैध निर्माण, नालों पर अतिक्रमण आदि से शहर में अंग्रेजी राज के समय से सौ से अधिक प्राकृतिक जलस्रोत सूख गए हैं।पहाडिय़ों से घिरे इस खूबसूरत पर्यटन स्थल में साल दर साल खतरा बढ़ रहा है। इस साल बारिश के दौरान आई आपदा में बलियानाला में भूस्खलन हुआ तो दर्जनों परिवारों को शिफ्ट करना पड़ा। ठंडी सड़क में पहाड़ी पर भूस्खलन के कारण डीएसबी कॉलेज के छात्रावास से छात्राओं को अन्यत्र शिफ्ट करना पड़ा। दोनों संवेदनशील पहाडिय़ों के ट्रीटमेंट को लेकर शासन-प्रशासन की देरी लोगों की चिंता बढ़ा रही है।उत्तराखंड के नैनीताल का जिक्र आते ही दिलोदिमाग में वहां की हसीन वादियां कौंध आती हैं. प्राकृतिक छटा से भरपूर यह शहर देश-विदेश के सैलानियों को आकर्षित शहर की तलहटी पर स्थित बलियानाला ने कई सरकारों और प्रशासकों को बदलते हुए देखा है। करीब 150 साल पूर्व पहाड़ी पर भूस्खलन की शुरुआत हुई थी, सुप्रीम कोर्ट ने नब्बे के दशक में पर्यावरणविद अजय रावत की जनहित याचिका पर नैनीताल में अतिसंवेदनशील पहाडिय़ों पर तथा शहर में व्यावसायिक निर्माण प्रतिबंधित लगाया था। इसके बाद भी शहर में ना केवल मरम्मत के बहाने बल्कि अन्य बहाने अवैध निर्माण चल रहे हैं। प्रो रावत के अनुसार अवैध निर्माण की वजह से झील के पानी के स्रोत सिमट रहे हैं। शहर में बांज प्रजाति के पेड़ डेढ़-दो सौ साल पुराने हो गए हैं और नए पौधे नहीं रोपे जा रहे हैं। वनस्पतियां गायब हो गई हैं। इससे पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहा है। झील की धममियां कही जाने वाली नालों पर अतिक्रमण बढ़ गया है। दर्जनों नालियों का अस्तित्व समाप्त हो गया है।जिसके बाद दशकों से जनप्रतिनिधियों और प्रशासकों ने पहाड़ी पर हो रहे भूस्खलन की रोकथाम के दावे तो किए, मगर कई सरकारों के बदलने के बाद भी बलियानाले की तस्वीर नहीं बदल पाई। ट्रीटमेंट के नाम पर ही निर्माणदायी संस्था पहाड़ी में अब तक करोड़ों बहा चुका है, मगर पहाड़ी पर भूस्खलन रुकने के बजाय स्थिति और भयावह होती जा रही है, जिस कारण पहाड़ी के ऊपर निवासरत क्षेत्रवासी दहशत में अपने दिन और रातें गुजार रहे हैं। यहां तक कि प्रभावित लोगों को विस्थापित करने तक की कोई ठोस व्यवस्था नहीं हो पाई है।वर्ष 1867 में पहाड़ी पर पहला भूस्खलन हुआ था। पहाड़ी की रोकथाम के लिए अंग्रेजों ने पहल करते हुए इंजीनियरों और विशेषज्ञों से 1888 में पहली कमेटी का गठन किया, मगर अगले ही वर्ष पहाड़ी पर बड़ा भूस्खलन हुआ, जिसमें क्षेत्र की काठ रोड ध्वस्त हो गई थी। कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ब्रिटिशकाल में नाले के दोनों ओर सुरक्षा दीवारों का निर्माण और नैनी झील के पानी की निकासी की समुचित व्यवस्था की गई, मगर पहाड़ी पर भूस्खलन नहीं रुका।बलियानाला पहाड़ी पर रोकथाम को लेकर आजादी के बाद जनप्रतिनिधियों ने कोई खास प्रयास नहीं किए। कृष्णापुर वार्ड के पूर्व सभासद डीएन भट्ट बताते हैं कि 1972 में अविभाजित उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री रहते हुए एनडी तिवारी ने पहाड़ी के संरक्षण के लिए 95 लाख की धनराशि मंजूर की थी। 1976 में गठित हाई पावर कमेटी ने फाल नंबर 22 से ब्रेवरी पुल तक करीब 2.10 किमी नाले के पैनल की लाइनिंग बनाने की संस्तुति की थी, मगर स्वीकृति के बाद भी भूस्खलन रोकथाम को कार्य शुरू नहीं हो पाए। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद 2003 में भूस्खलन रोकथाम को पहली बार ट्रीटमेंट शुरू किया गया।प्रदेश बनने के बाद बलियानाला के ट्रीटमेंट में निर्माणदायी सिंचाई विभाग ने करोड़ों रुपये बहा दिए, मगर नतीजा अब भी शून्य है। विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक, 2003 में करीब 15 करोड़ की राशि से नाले में पानी के डे्रेनेज, नाली निर्माण समेत सुरक्षात्मक कार्य किए गए, मगर 2018 के भारी भूस्खलन में सारा ट्रीटमेंट जमीदोज हो गया। 2018 के बाद से सिंचाई विभाग चार करोड़ से अधिक की लागत से पहाड़ी का शार्ट टर्म ट्रीटमेंट कर चुका है, फिर भी पहाड़ी पर भूस्खलन नहीं रुक रहा।2018 में भारी भूस्खलन के बाद पहाड़ी के ट्रीटमेंट के लिए हाई पावर कमेटी की सिफारिश पर जायका और आइआइटी रुड़की की टीम ने पहाड़ी का जियोफिजीकल सर्वे समेत अन्य अध्ययन किए। जायका ने पहाड़ी के ट्रीटमेंट के लिए 620 करोड़ का प्लान भी सुझाया, मगर इसके बाद न तो डीपीआर बन पाई और न ही ट्रीटमेंट शुरू हो पाया। अब एक बार फिर नए सिरे से टेंडर आयोजित कर सिंचाई विभाग पुणे की लिमिटेड कंपनी से अनुबंध किया है। कंपनी के विशेषज्ञ इन दिनों एक बार फिर वहीं सर्वे कर रहे है जो तीन वर्ष पूर्व जापान के वैज्ञानिक कर चुके हैं।डीएम नैनीताल ने कहा कि पहाड़ी के ट्रीटमेंट से पूर्व डीपीआर बनाने के लिए सिंचाई विभाग ने पुणे की कंपनी को टेंडर दिया है। इन दिनों विशेषज्ञ पहाड़ी के साथ ही डांठ, हल्द्वानी व भवाली मार्ग का सर्वे कर रहे हैं। गर्मियों तक डीपीआर तैयार कराकर प्रस्ताव शासन को भेजा जाएगा। देश भर में इस वर्ष हुई भूस्‍खलन की अलग-अलग घटनाओं में दर्जनों लोग मारे गए हैं और संपत्ति का भी काफी नुकसान हुआ है।जागरूकता के साथ-साथ तकनीक के उपयोग से भूस्‍खलन से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। हालांकि भारी वर्षा, बाढ़ और तूफान जैसी आपदाओं की तरह भूस्‍खलन का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन वैज्ञानिक इस दिशा में निरंतर कार्य कर रहे हैं।भूस्‍खलन, बाढ़, भूकंप और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन में विभिन्‍न भौगोलिक क्षेत्रों की मैपिंग महत्‍वपूर्ण साबित हो सकती है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्थान (जीएसआई) रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना तंत्र (जीआईएस) जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से पूरे देश का भूस्‍खलन संवेदनशीलता मानचित्र बनाने में जुटा है। प्रकृति खुद आपदा का संकेत देती है और उन संकेतों को समझने के लिए सामुदायिक समझ विकसित करना जरूरी है। जैसे- बरसात के मौसम में पर्वतीय इलाकों की नदियों में मटमैले पानी का बहाव या फिर मिट्टी का रिसाव भूस्‍खलन का संकेत हो सकता है।’’ वह कहते हैं कि ‘‘भूस्‍खलन के प्रति संवेदनशील इलाकों में लोगों को यह बताना जरूरी है कि जल-जमाव, मिट्टी का कटाव या रिसाव, नालों में गंदगी का जमाव, वनों की कटाई और मानकों के खिलाफ निर्माण कार्य खतरे को बढ़ावा दे सकते हैं।भूवैज्ञानिक ऐसे कई संकेतों का जिक्र करते हैं, जो भूस्‍खलन की दस्‍तक का आभास करा सकते हैं। दरवाजे तथा खिड़िकयों की चौखटों में अटकन, डैक तथा बरामदे बाकी के सारे घर से कुछ दूरी पर खिसक गए हों या झुक रहे हों, जमीन, सड़क या फुटपाथ में नई दरारें या उभर आई हों, पेड़ों, रिटेनिंग (प्रतिधारक) दीवारों या फेन्सिंग (बाड़ों) में झुकाव, ऐसे इलाके जो सामान्य रूप से गीले नहीं होते वहां पानी का अचानक निकलना, रिसाव या जमाव हो रहा हो तो उसे नजरंदाज करना ठीक नहीं है क्‍योंकि यह जमीन खिसकने का संकेत हो सकता है। भूस्‍खलन की समस्‍या से निपटने के लिए इंस्‍ट्रूमेंट आधारित सिस्‍टम के बजाय समुदायिक भागीदारी ज्‍यादा कारगर साबित हो सकती है। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत  हैं।