उत्तराखंडताज़ा खबर डॉ. नित्यानंद उत्तराखंड राज्य के प्रणेता By Kailash Joshi - February 10, 2022 0 321 Share Facebook Twitter Google+ Pinterest WhatsApp डॉ. नित्यानंद उत्तराखंड राज्य के प्रणेता डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला उत्तराखंण्ड राज्य पृथक बनना चाहिए यह बात डॉ नित्यानंद जी ने साठ के दशक में कह दी थी और उनके प्रयास एवं आग्रह पर ही संघ ने पृथक राज्य की बात स्वीकार की थी। वह उत्तराखंड राज्य के विचार बीज प्रदाता थे।डॉ. नित्यानंद सही मायने में हिमालय पुत्र थे। जिनके अथक प्रयासों से उत्तराखंड का गठन हो सका। उन्होंने आजीवन सच्चे स्वयंसेवक का कर्तव्य निभाते हुए भावी पीढ़ी के लिए आदर्श प्रस्तुत किया। आगरा में जन्म लेने के बाद भी डॉ. नित्यानंद ने अपना पूरा जीवन हिमालय की सेवा में समर्पित कर दिया। वह पर्वतीय क्षेत्र से मैदानी जिलों में बसने वालों के लिए बेमिसाल उदाहरण थे। सही अर्थों में कहें तो डॉ. नित्यानंद उत्तराखंड राज्य के प्रणेता थे। स्व. डॉ. नित्यानंद जी प्रख्यात शिक्षाविद एवं समाजसेवी थे। उनका जन्म आगरा में हुआ लेकिन उन्होंने उत्तराखंड को अपनी कर्मभूमि बनाया। नित्यानंद जी ने एक साधक की तरह मन, वचन और कर्म से समाज की सेवा की और अवकाश प्राप्ति के बाद वे कुछ समय के लिए संघ की योजना से आगरा गए,। पर वहां उनका मन नहीं लगा और फिर वे देहरादून आ गए। सन् 1991 में उत्तरकाशी में आये भूकंप के बाद उन्होंने गंगा घाटी के मनेरी गांव को अपना केन्द्र बनाया. वहां 400 से अधिक मकान बनवाए और जीवन के अंत तक शिक्षा, संस्कार और रोजगार के प्रसार के लिए काम करते रहे। देवतात्मा हिमालय ने पर्यटकों तथा अध्यात्म प्रेमियों को सदा अपनी ओर खींचा है। पर नौ फरवरी, 1926 को आगरा के उत्तर प्रदेश में जन्मे डा. नित्यानन्द ने हिमालय को सेवाकार्य के लिए अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। आगरा में 1940 में विभाग प्रचारक श्री नरहरि नारायण ने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ा, पर श्री दीनदयाल उपाध्याय से हुई भेंट ने उनका जीवन बदल दिया और उन्होंने संघ के माध्यम से समाज सेवा करने का व्रत ले लिया।1944 में आगरा से बी.ए. कर वह भाऊराव देवरस की प्रेरणा से प्रचारक बनकर आगरा व फिरोजाबाद में कार्यरत रहे। नौ वर्ष बाद उन्होंने फिर से पढ़ाई प्रारम्भ की और 1954 में भूगोल से प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। एक मात्र पुत्र होने के कारण वह अध्यापक बने। पर विवाह नहीं किया, जिससे अधिकांश समय संघ को दे सकें। 1960 में अलीगढ़ से भूगोल में ही पी–एच.डी. कर नित्यानंद जी कई जगह अध्यापक रहे। 1965 से 1985 तक वे देहरादून के डी.बी.एस.कॉलिज में भूगोल के विभागाध्यक्ष रहे।इस दौरान उन्होंने हिमालय के दुर्गम स्थानों का गहन अध्ययन किया। पहाड़ के लोगों के दुरुह जीवन, निर्धनता, बेरोजगारी, युवकों का पलायन आदि समस्याओं ने उनके संवेदनशील मन को झकझोर दिया। आपातकाल में नौकरी की चिन्ता किए बिना वे सहर्ष कारावास में रहे। उन्होंने कहीं कोई घर नहीं बनाया। सेवानिवृत्त होकर वे पहले आगरा और फिर देहरादून के संघ कार्यालय पर रहने लगे। उन पर जिले से लेकर प्रान्त कार्यवाह तक के दायित्व रहे। दिसम्बर, 1969 में लखनऊ में हुए उ.प्र. के 15,000 स्वयंसेवकों के विशाल शिविर के मुख्य शिक्षक वही थे। उनका विश्वास था कि संघस्थान के शारीरिक कार्यक्रमों की रगड़ से ही अच्छे कार्यकर्ता बनते हैं।20 अक्तूबर, 1991 को हिमालय में विनाशकारी भूकम्प आया। इससे सर्वाधिक हानि उत्तरकाशी में हुई। डा. नित्यानन्द जी ने संघ की योजना से वहां हुए पुनर्निमाण कार्य का नेतृत्व किया। उत्तरकाशी से गंगोत्री मार्ग पर मनेरी ग्राम में ‘सेवा आश्रम’ के नाम से इसका केन्द्र बनाया गया। अपनी माता जी के नाम से बने न्यास में वह स्वयं तथा उनके परिजन सहयोग करते थे। इस न्यास की ओर से 22 लाख रुपये खर्च कर मनेरी में एक छात्रावास बनाया गया है। वहां गंगोत्री क्षेत्र के दूरस्थ गांवों के छात्र केवल भोजन शुल्क देकर कक्षा 12 तक की शिक्षा पाते हैं। वहां से ग्राम्य विकास, शिक्षा, रोजगार, शराबबन्दी तथा कुरीति उन्मूलन के अनेक प्रकल्प भी चलाये जा रहे हैं। अपनी पेंशन से वह अनेक निर्धन व मेधावी छात्रों को छात्रवृत्ति देते थे।डाक्टर नित्यानंद को उत्तरांचल दैवीय आपदा पीड़ित सहायता समिति के गठन का श्रेय जाता है। जो 14 बरसों से देश की किसी भी हिस्से में आई आपदा में पीड़ितों की मदद का हरसंभव प्रयास करती है।जिन दिनों ‘उत्तराखंड आन्दोलन’ अपने चरम पर था, तो उसे वामपन्थियों तथा नक्सलियों के हाथ में जाते देख उन्होंने संघ के वरिष्ठजनों को इसके समर्थन के लिए तैयार किया। संघ के सक्रिय होते ही देशद्रोही भाग खड़े हुए। हिमाचल की तरह इस क्षेत्र को ‘उत्तरांचल’ नाम भी उन्होंने ही दिया, जिसे गठबंधन की मजबूरियों के कारण बीजेपी शासन ने ही ‘उत्तराखंड’ कर दिया। केन्द्र में अटल जी की सरकार बनने पर अलग राज्य बना। पर उन्होंने स्वयं को सेवा कार्य तक ही सीमित रखा। उत्तरकाशी की गंगा घाटी पहले ‘लाल घाटी’ कहलाती थी। पर अब वह ‘भगवा घाटी’ कहलाने लगी है। उत्तरकाशी जिले की दूरस्थ तमसा (टौंस) घाटी में भी उन्होंने एक छात्रावास खोलउत्तराखंड में आयी हर प्राकृतिक आपदा में वह सक्रिय रहे। देश की कई संस्थाओं ने सेवा कार्यों के लिए उन्हें सम्मानित किया। उन्होंने इतिहास और भूगोल से सम्बन्धित कई पुस्तकें लिखीं। वृद्धावस्था में भी वे ‘सेवा आश्रम, मनेरी’ में छात्रों के बीच या फिर देहरादून के संघ कार्यालय पर ही रहते थे। डाक्टर नित्यानंद जी का 8 जनवरी, 2016 को देहरादून निधन हुआ।डॉ. नित्यानन्द का व्यक्तित्व कार्यकर्ताओं के लिए सदैव प्रेरक रहा उनके लिए सभी के मन में एक विषेष स्थान है।