स्यालदे बिखौती कौतिक में जीवंत हो उठी देवभूमि की गौरवशाली परंपरा
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
बिखौती त्यौहार उत्तराखंड के लोक पर्व के रूप में मनाया जाता है। बिखौती त्योहार के दिन मनाया जाता है। इसलिए इसे लोक भाषा में बिखौती त्यौहार कहा जाता है।प्रत्येक साल बैसाख माह के पहली तिथि को भगवान सूर्यदेव अपनी श्रेष्ठ राशी मेष राशी में विचरण करते हैं।इस स्थिति या संक्रांति को विषुवत संक्रांति या विशुवती त्योहार या उत्तराखंड की लोक भाषा कुमाऊनी में बिखोती त्योहार कहते हैं।विषुवत संक्रांति को विष का निदान करने वाली संक्रांति भी कहा जाता है। कहा जाता है, इस दिन दान स्नान से खतरनाक से खतरनाक विष का निदान हो जाता है। विषुवत संक्रांति के दिन गंगा स्नान का महत्व बताया गया है का मतलब भी कुमाउनी में विष का निदान होता है। पौराणिक द्वारका में देवभूमि की गौरवशाली परंपरा जीवंत हो उठी। ऐतिहासिक स्यालदे बिखौती कौतिक में छोटी स्यालदे पर नौज्यूला धड़ा में शामिल तमाम गांवों के रणबांकुरों ने सबसे पहले ओढ़ा भेंटने की रस्म निभाई।खास बात कि इस बार मेले में केंद्र सरकार की मुफ्त राशन योजना पर कटाक्ष करता झोड़ा गीत सबकी जुबां पर छा गया। महिलाओं व पुरुषों की टोलियों ने ‘सरकारल बांटौ फ्री राशना, छोड़ दे हिमा खेति…” झोड़ा गीत पर थिरक कौतिक की रंगत दूनी कर दी। तड़के बिखौती कौतिक के बाद गुरुवार को दिन में बाटपुजै का विशेष पूजन किया गया। शाम को परंपरानुसार नौज्यूला धड़े के हाट, सलालखोला, कौंला, भूमकिया, ध्याड़ी, बमनपुरी, तल्ली काहली आदि कई गांवों के रणबांकुरे का हुजूम सात जोड़े नगाड़े निषाणों के साथ मुख्य चौराहा पर पहुंचे।वीररस से भरे झोड़ा गीतों ने जहां उत्साह भरा। वहीं हास्य रस की फुहार ने माहौल खुशनुमा भी बनाया। सरकार नृत्य ने भी मुग्ध किया। वहीं ऐतिहासिक शीतलापुष्कर मैदान में भी उत्तराखंडी लोक संस्कृति के रंग बिखरे।बिखौती मेले में बुधवार को मध्यरात्रि बाद दूसरे प्रहर वीर एवं भक्तिरस में डूबे तमाम गांवों के बांकुरे झोड़ा गीतों पर थिरकते विभांडेश्वर तीर्थ पहुंचे। पूरा क्षेत्र झोड़ा गीतों से गूंज उठा। नौज्यूला व गरख धड़ा के रणा, वलना, गवाण, कोटिला, कुई, सलना, बूंगा, सिमलगांव, गुपटली, बेढुली, असगोली, छतगुल्ला आदि गांवों से 13 जोड़ी नगाड़े निषाण लाए गए।बूंगा वालों का डांडिया शैली से जुड़ा पर्वतीय डंगबाजा ने रंग जमाया। तड़के ब्रह्म मुहूर्त पर रणभेरी बजते ही सुरभि, नंदिनी व गुप्त सरस्वती की त्रवेणी पर नहान (महास्नान) की रस्म निभाई गई। तत्पश्चात पहले शिव फिर सती कलावती देवी की चरण पादुका का विशेष पूजन हुआ। बाल साहित्यकार उदय किरौला ने इस बार समसामयिक घटनाक्रम पर केंद्र की मुफ्त राशन योजना पर झोड़ा गीत रचा। यह खासा चर्चाओं में रहा। बोल रहे- ‘कंट्रोला में ग्यूं एगेई, छोड़ दे हिमा खेति। रोज बाजारा घुमण जाली, छोड़ दे हिमा खेति। सरकारल बांटौ फ्री राशना, छोड़ दे हिमा खेति। रोज चलाली मोबाइला, छोड़ दे हिमा खेति. कुमाऊं के मशहूर लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी ने द्वाराहाट में लगने वाले स्याल्दे बिखौती के कौतिक में सुदूर गांवों से आने वाली भारी भीड़ का उल्लेख करते हुए। इस भीड़ में वो पहाड़ी परिवेश में सजी-धजी अपनी दुर्गा के गुम होने का बखान करते हैं। आज इसी स्याल्दे बिखौती को राज्य मेले के रूप में मान्यता मिल चुकी है। कुमाऊं के पाली पछाऊं में यह मेला बैसाखी के दिन लगता है। कुमाऊं के दूर-दूर के गांवों से महिलाएं और पुरुष पारंपरिक पहनावे में मेले में आते हैं। निशाण फहराते हुए पहाड़ी गाजे-बाजे में नाचते-गाते मेला स्थल पर पहुंचते हैं। झोड़े, चांचरी, छपेली और भगनौल की धूम रहती लोक संस्कृति व परंपरा के पैरोकार रहे कत्यूरी राजा सालदेव की अगुआई में स्याल्दे मेले का श्रीगणेश हुआ। स्याल्दे पोखर वर्तमान का शीतला पुष्कर मैदान भी राजा सालदेव की ही देन है। मेले से पूर्व महास्नान की परंपरा भी उन्होंने ही शुरू की थी। पुराना गौरव लाने में जुटे संस्कृति कर्मी मंदिरों का नगर द्वाराहाट के पूरब दिशा में खिरो नदी के बाए भूभाग में अल्मोड़ा व कत्यूरघाटी आल धड़ा और पश्चिम में सल्ट स्याल्दे, रामनगर के साथ ही हल्द्वानी के गांव समाहित थे। वहीं पश्चिम दिशा में चौखुयिा, सल्ट व स्याल्दे ही नहीं नौज्यूला धड़े में रामनगर व हल्द्वानी के गांव जुड़े थे। संस्कृति प्रेमी अब इस ऐतिहासिक मेले को उसका पुराना गौरव दिलाने में जुट गए हैं। अलबेरा बिखौती म्यरि दुर्गा हरै गे, सार कौतिका चा नैं म्यरि कमरै पटै गे। ऐतिहासिक स्याल्दे मुख्य मेले में शराब की दुकानें खुली रखने से आहत महिला रंगकर्मियों ने व्यवस्था पर सवाल उठाए। साथ ही झोड़ा गीत ‘पहाड़ा का दाज्यू झन पिया शराबा, लाल लाल थैली नाम गुलाबा..’ के जरिये नशाखोरी पर प्रहार किया। वहीं मौजूदा वनाग्नि तथा घटती हरियाली के प्रति आगाह करते हुए संदेश दिया- ‘बांज नि काटा लछीमा बांजा नि काटा उत्तराखंड के शहीदों की कुर्बानियों समेत कमोबेश सभी उत्तराखंडवासियों के आंदोलन के बदौलत 21 साल पहले राज्य तो बन गया, लेकिन जनता के सपनों का राज्य बनना अभी बाकी है। राज्य निर्माण की मूल मंशा गांवों के अंतिम छोर तक सड़क निर्माण, स्वास्थ्य, शिक्षा, सिंचाई, पेयजल, विद्युत जैसी सुविधाओं का विस्तार था, लेकिन राज्य बनने के 21 साल बाद भी लोग मूलभूत सुविधाओं से जूझ रहे हैं। रही-सही कसर जंगली जानवरों ने पूरी कर दी है।