विकास की भेंट चढ़ते उत्तराखंड के सांस्कृतिक नौलों
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
उत्तराखंड के कुमाऊ मंडल में नौलों की एक संस्कृति रही है। अल्मोड़ा उस संस्कृति से हिमालय क्षेत्रा में जितने भी पुराने नौले हैं, वहां कत्युरी राजाओं की छाया देखी जा सकती है। नौलों में हमारी संस्कृति भी दिखती है, जितने नौले हैं, वहां यक्ष देवता की मूर्ति हर नौले में रखी हुई दिख जाएगी। पुराने समय के लोग यह बताते हैं कि इस क्षेत्रा में यक्ष देवता को प्रणाम करने के बाद ही पानी लेने का विधान रहा है। नौलों में जूता पहनकर जाने की सख्त मनाही थी, इसलिए पानी लेने आने वाला शख्स जूतो को खोलकर, जल में रखे गए देवता की मूर्ति को प्रणाम करके ही पानी लेता था। इसका अर्थ है कि पुराने समय में स्वच्छता का विशेष ख्याल रखा गया था। जो शहर में पानी का पाइप लाइन आने के बाद लगभग खत्म ही हो गया। अब तो पानी के लिए लोगों ने बाहर निकलना भी बंद कर दिया है। इस तरह नौले उपेक्षित हो गए। इस तरह बहुत से नौले लुप्त हो गए। लेकिन हमने कभी नहीं सोचा कि इन नौलों को बचाने से हम पानी के संकट से बच सकते हैं। समाज को शुद्ध पानी निशुल्क मिल सकता है इतना ही नहीं आधुनिकता की आंधी में नौलों के साथ हमारे सांस्कृतिक जुड़ाव को भी पहाड़ के समाज ने भूला दिया। पहाड़ों में अब आखिरी पीढ़ी बची है, जो नौलों के महत्व और इतिहास को लेकर संवेदनशील है।हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारा परंपरागत ज्ञान तभी सुरक्षित रह सकता है, जब हम नौले के पास जाएंगे और उस आत्मीयता को महसूस करेंगे। देखने में आ रहा है कि नौलों के प्रति लोग काफी चिन्तित हैं। लेकिन नौलों के प्रति उनकी चिन्ता कम और परियोजना के प्रति उसमें आकर्षण अधिक नजर आता है। यदि ईमानदारी से काम किया जाए तो समाज की सहभागिता और प्रशासन के सहयोग से यह काम किया जा सकता है।
अल्मोड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि उन्होंने मित्रों के साथ मिलकर नौलों की सफाई का काम प्रारंभ किया था। बहुत से नौलों में उन्होंने सफाई अभियान चलाया। उन्होंने रानी नौला, लक्ष्मीश्वर नौला, सिद्ध नौला, कपिना नौला में सफाई की। यह सब उन्होंने किसी प्रोजेक्ट के अन्तर्गत नहीं किया, बल्कि नदी बचाओ अभियान चलाते हुए किया। उन्हें लगा कि नदीं तभी बचेगी, जब नौले और धारे बचेंगे। उन्होंने नौले और धारों की सफाई के अभियान की शुरुआत इसलिए कि क्योंकि उन्होंने सोचा था कि इस तरह से नौलों धारों की सफाई के काम से समाज को जोड़कर वे दूसरे नौले की सफाई के लिए आगे बढ़ जाएंगे। जबकि तीन चार सप्ताह सफाई करने के बाद लोगों के फोन उनके पास आने लगे कि इस बार सफाई के लिए क्यों नहीं आए? लोग इस तरह के अभियान से जुड़ते नहीं बल्कि उनकी आदत निर्भर रहने की हो गई है। कोई बाहर से आए, और उनकी सारी फैलाई हुई गंदगी समेट कर अपने साथ ले जाए।
शिवजी के पुत्रा कार्तिकेय के नाम से छठे शताब्दी में एक साम्राज्य कत्युरी स्थापित हुआ। बताया जाता है कि हिमालय भू भाग में पहला सिक्का इन्होंने ही चलाया जो आज भी संग्रहालय में मिल जाएगा। इनकी सीमा अफगानिस्तान तक फैली थी। सन् छह में कुमाऊ में संकट आया। चीन की तरफ से हमला हुआ। कत्युरी राजाओं की राजधानी तिब्बत के पास ब्रह्मपुर थी। राजा शिव ने उस समय अपनी बहन सुनंदा को जो मेवाड़ के राजा के यहां ब्याही गई थी। उसे संदेश भेजा कि हमारा राज छिन्न भिन्न हो गया है। मदद कीजिए। मेवाड़ के राजा ब्रह्मपुर की रक्षा के लिए आए जिसमें रास्ते में कई राजे रजवाड़े जुड़ते चले गए। ब्रह्मपुर आजाद हुआ। फिर लंबे समय तक कोई विपदा इस क्षेत्रा पर नहीं आई। कार्तिकेय का साम्राज्य बहुत फैला। कत्युरी राजाओं का युद्ध मुगलों से हुआ। काठगोदाम के पास जो रानी बाग है, वहां जिया रानी मुगलों से लड़ती हुई मारी गई। लेकिन अपने जीवन में मुसलमानों को पहाड़ में नहीं आने दिया।
वैसे इतिहासकार अल्मोड़ा शहर को बसाने का श्रेय चंद राजाओं को देते हैं। सन 1563 में चंद राजा बालो कल्याणचंद ने अल्मोड़ा को अपनी राजधानी बनाया। उससे पहले यह शहर कत्युरी राजाओं की देखरेख में था और चंद राजाओं की राजधानी उस समय पिथौरागढ़ हुआ करती थी। अल्मोड़ा नाम के पिछे भी एक कहानी सुनने को मिलती है। अल्मोड़ा स्थित कटारमल के सूर्य मंदिर के बर्तनों की सफाई के लिए प्रति दिन खसियाखोला नाम की जगह खस समुदाय के लोग एक खास घास मंदिर में पहुंचाते थे। इस घास का नाम चिल्मोड़ा था। जिसे कुछ लोग अमला नाम से भी जानते हैं। इसी चिल्मोड़ा घास के नाम पर शहर का नाम अल्मोड़ा रख दिया गया। जानकार बताते हैं कि मुगलों ने चंद राजाओ से समझौता किया था। जिस समझौते के अन्तर्गत चंद राजाओं ने मुसलमानों को अपने यहां रहने की जगह देने का आश्वासन दिया और अल्मोड़ा शहर में राजपुरा उसी समझौते के अन्तर्गत बना।उस दौर में आम जन के बीच देवताओं का भय था कि वे नौलों में स्वच्छता नहीं रखेंगे तो देवता नाराज हो जाएंगे। अब वह डर समाज के अंदर से जाता रहा है और समाज का नैतिक मूल्य खत्म हो रहा है। अब युवा पीढ़ी को परिवार और समाज से नैतिक शिक्षा मिलती भी नहीं है। वैसे अनैतिकता के आग्रह के साथ विकास कर रहे समाज को परवाह हो ना हो, पर नौलों में उतरने पर ईश्वर की मूर्तियां अब भी वहां विराजमान है। वहां गोल विष्णु चक्र मिलेगा। कत्युरी राजा मानते थे कि जल ही विष्णु है। जो हमारा लालन–पालन करता है। अब भेड़चाल हो गई है। हरिद्वारा जाना है। गंगा में डूबकी लगानी है। अब भेड़ चाल में हमारे अंदर का आध्यात्मिक बोध खत्म हो गया है। भौतिक बोध बच गया कि हमें नहाना है। इसीलिए हम नदियों और नौलों को प्रदूषित कर रहे हैं। हमें इस बात की परवाह नहीं रही कि हमारे बाद भी लोग यहां आएंगे। हम अपने कल के लिए प्रकृति को संवारने में यकीन खो रहे हैं।अल्मोड़ा शहर में जिसे 360 नौलों का शहर कहा जाता है, जिसका जिक्र पंडित बद्रीदत्त पांडेय ने ‘कुमाऊ के इतिहास’ में किया है। दूसरी तरफ नैनीताल की कथित तौर पर खोज करने वाला बैरन जो 1840 में अल्मोड़ा आया। उसने लिखा कि अल्मोड़ा में उस समय लगभग 100 जल स्त्रोत थे। ‘पर्वतीय जल स्त्रोत’ नाम किताब के लेखक प्रफुल्ल चंद पंत ने 1988-93 के बीच नौलों और धारों पर एक गम्भीर अध्ययन किया और उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि बैरन सही था।जैसा कि हम जानते हैं कि 1864 में स्थापित अल्मोड़ा नगर पालिका भारत की सबसे पुरानी नगर पालिकाओं में से एक है। इसके नियम कानून की पुस्तिका में लिखा है कि चेचक के रोगियो अथवा किसी भी संक्रामक रोग से पीड़ित व्यक्ति के कपड़े को धोने के लिए अलग नौले की व्यवस्था थी। रजस्वला स्त्रिायों के स्नान के नौले अलग थे। पीने का पानी जहां से लिया जाए वहां कपड़े धोने और स्नान करने की मनाही थी। क्रिया कर्म के नौले अलग थे। यहां नियम का पालन ना करने वालों पर जुर्माने की व्यवस्था भी थी। मृत्यु के बाद 12 दिनों तक चलने वाले कर्म कांड के लिए क्रिया नौलों का इस्तेमाल किया जाता था। यहां उल्लेखनीय है कि जिन नौलों का इस्तेमाल क्रिया कर्म के लिए किया जाता था, उन्हीं नौलों का पानी कुमाऊ में पीने योग्य बचा हुआ है। दूसरे नौलों की हालत खराब हुई है। संभव है समाज में मौजूदा मृत्यु से भय ने क्रिया नौलों की रक्षा की होगी। सुनारी नौला, चौधरी नौला जैसे जाति आधारित नौले भी कुमाऊ में देखने को मिलते हैं।कोसी पेयजल योजना सन 1952 में बनी। बावजूद इसके अल्मोड़ा में पानी के लिए नौलों की शरण में जाना मजबूरी थी। इस योजना का पानी भी अल्मोड़ा के लिए पर्याप्त नहीं था। सन 1882 में अल्मोड़ा की जनसंख्या 5000 थी। उस वक्त भयानक सूखा पड़ा था। सारे जल स्त्रोत सूख गए थे। बची थी सिर्फ कपीना धारा। उन दिनों कपीना धारा पर चाय का बगान हुआ करता था। उस धारा के पानी ने लगभग 135 साल पहले पूरे अल्मोड़ा शहर के जीवन की रक्षा की थी। पंडित बद्री दत्त जोशी जिन्होंने बदरिश्वर मंदिर बनाया, ने जिलाधिकारी को जल परियोजना के लिए एक पत्रा लिखा था, जिसमें इस घटना का उल्लेख मिलता है। बल्ढ़ौटी में पांच जलस्त्रोत थे। उस पानी को पहली बार पाइप के जरिए अल्मोड़ा शहर में लाया गया लेकिन उस पानी से अल्मोड़ा की जरूरत पूरी नहीं हुई। कचहरी के पास रम्फा नौला है। वहां जल परियोजना का पानी छोड़ा गया। 1928 में स्याही देवी जल परियोजना आई। स्याही देवी अल्मोड़ा के पास एक बड़ा पहाड़ है। इस पहाड़ को अल्मोड़ा के अभिभावक जैसा माना जाता है। कसार देवी और वानर देवी की पहाड़ी को मिला दें तो इस तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरने की वजह से अल्मोड़ा का मौसम ना अधिक गर्म हो पाता है और ना अधिक ठंडा। लेकिन अब अल्मोड़ा कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया है। वर्ष 1952 कोसी पेयजल योजना बनी। हर गोविन्द पंत विधानसभा अध्यक्ष थे और गोविन्द वल्लभ पंत मुख्यमंत्राी थे। उस समय डिजल के पंप से पानी खींचकर अल्मोड़ा तक लाया गया। कोसी पेयजल योजना आने के बाद घरों में नल आ गया। घरों में सहजता से पानी उपलब्ध होने की वजह से शहर में नौलों की उपेक्षा हुई। कोसी परियोजना का पानी बंद होने के बाद जरूर लोगों को नौलों का ख्याल आता है। पूरा शहर उसके बाद नौलों धारों की तरफ भागता है। जब व्यक्ति श्मशान में जाता है, उसे थोड़ी देर के लिए वैराग्य महसूस होता है और जैसे ही वह घर लौटता है, उसका वैराग्य पीछे छूट जाता है। अल्मोड़ा में भी नौलों धारों की चिन्ता नगरवासियों को उसी समय तक रहती है, जब तक नल में पानी ना आ जाए। नल में पानी आते ही लोग नौलों का चिन्तन भूल जाते हैं। वैराग्य खत्म हो जाता है।
वर्ष 1975 का कुमाऊ गढ़वाल जल संचय संग्रह वितरण अधिनियम है, जो कहता है कि आप किसी भी जल स्त्रोत के 100 मिटर के अंदर कोई झाड़ी, पौधा, पेड़ नहीं काटेंगे। यानि आप ऐसी कोई कार्यवायी नहीं करेगे जिससे उस स्त्रोत को नुक्सान पहुंचता हो। जबकि कुमाऊ क्षेत्रा में ऐसा कोई नौला तलाशना आसान नहीं होगा, जिसका अतिक्रमण नहीं हुआ हो। कई नौलों और धारों को रसूख वाले लोगों ने अपने व्यक्तिगत कब्जे में ले लिया है। एक स्थानीय होटल के कब्जे में ऐसे ही तीन धारे हैं। शहर में सीवर है और लोगों ने नौलों धारों के साथ अपना सेप्टिक बनाया है।1563-70 के बीच अल्मोड़ा शहर चंद राजाओं ने विकसित किया। वे सबसे पहले खगमर कोर्ट आए। कोर्ट का अर्थ किला है। यहां आने की खास वजह जल स्त्रोत ही था। यहां पर्याप्त जल स्त्रोत मौजूद था। अब वे नौले खत्म हो गए। 1568 में राजा बालो कल्याणचंद के निधन के बाद उनकी गद्दी पर राजा रुद्रचंद बैठे। राजा रुद्रचंद ने अपने लिए इस पहाड़ी पर मल्ला महल का निर्माण कराया। जो इन दिनों अल्मोड़ा के जिलाधिकारी कार्यालय है। खगमरकोट और नैल का पोखर जो सिद्ध के नौले के पास है। वहां भी राजा रहे। यह जगह वर्तमान में पल्टन बाजार के पास है। शहर का विस्तार उस समय उत्तर की तरफ हो रहा था। इसी समय मल्ला महल का निर्माण हुआ। गौरतलब है कि मल्ला महल के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों पर पानी का पर्याप्त स्त्रोत मौजूद था। जबकि राजाओं के पास नौकर चाकर कारिन्दों की कोई कमी नहीं होती थी। उनका महल कहीं भी बनता तो पानी की कमी नहीं होने पाती। इसके बावजूद राजाओं ने महल/किला बनाते हुए पानी के स्त्रोत का विशेष ख्याल रखा। वैसे अल्मोड़ा के थपलिया में एक राज नौला भी है। इस नौले का नाम राज नौला इसीलिए पड़ा क्योंकि यहां से राजा का पानी जाता था। आज वहां का पानी पीने लायक नहीं बचा, वह प्रदूषित हो चुकाहै। अल्मोड़ा के प्राकृतिक जल स्त्रोत एक के बाद एक प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं। उनका पानी पीने योग्य नहीं बचा। गिनती के नौले और धारे कुमाऊ में बचे हैं, जिनका पानी पीने योग्य है। वर्ष 1947 में देश जब आजाद हुआ, उस समय कुमाऊ क्षेत्रा में ड्रेनेज की जो व्यवस्था थी, सन 2016 में भी हम उस व्यवस्था से एक कदम भी आगे नहीं बढ़े हैं। इतने सालों में कुछ नहीं बदला। उलट ड्रेनेज के साथ जुड़े हुए गदेरे अतिक्रमण के शिकार हो गए हैं। घर बन गए वहां। गदेरों के आस–पास सबसे अधिक नौले मौजूद हैं। गदेरे खत्म किए गए और शहर का सारा गंदा पानी नौलों में जा मिला। सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों से कई बार शहर के जल स्त्रोतों के पानी का परीक्षण हुआ। उसके परिणाम चिन्ताजनक थे। यदि वास्तव में इस विषय को लेकर समाज गम्भीर है तो इसके लिए सबसे पहले नौले के कैचमेन्ट एरिया को सुरक्षित करना होगा। ऐसा करने से नौले में पानी बढ़ेगा। लेकिन जिस अल्मोड़ा शहर को यहां के नागरिकों ने कंक्रीट का जंगल बनाया है, वहां के कैचमेन्ट के क्षेत्रा को सुरक्षित करने और आगे सुरक्षित रखने की बात वहां का अब बात करते है जल स्त्रोत की। शहर में ड्रेनेज की व्यवस्था नहीं है, यह बात पूरा शहर जानता है। उसके बावजूद पूरे शहर सेप्टिक टैंकों से भरा हुआ है। इसे आम तौर पर लोगों ने आंगन में ही बनवाया है। उस टैंक में इकट्ठा हो रहे मल मूत्रा की कोई निकासी नहीं है। उसका पानी रिस कर मिट्टी के रास्ते भू जल में मिल रहा है। यह बात अल्मोड़ा के लोगों को भी समझनी होगी कि उस पानी से उनके नौलों–धारों में आ रहा पानी अछूता नहीं रह सकता है। प्रदूषित जल की बात परीक्षणों से भी साबित हो चुकी है।
नौलों और धारों की उपेक्षा के कारण अल्मोड़ा जिस पानी की संकट से गुजर रहा है, यदि आने वाले समय में शहर इस समस्या से बाहर निकलना चाहता है तो इसका हल जनसहभागिता से ही निकल सकता है। जनसहभागिता से ही हालात में बदलाव आ सकता है। सरकारी परियोजनाएं एक हजार करोड़ की भी आ जाएं तो इस समस्या से कुमाऊ बाहर नहीं आ सकता। समाधान के लिए पानी के प्रति समाज में जागृति का आना जरूरी है। पानी का मोल जब तक लोगों नहीं समझेगा और पानी की गुणवत्ता को लेकर वह जागरूक नहीं होगा, तब तक उसे इस बात की समझ नहीं होगी कि पानी से जुड़ी सभी बीमारियों के जड़ में प्रदूषित पानी है। और इससे बचाव के लिए परिवेश को साफ रखना होगा।
पानी की सफाई के संकल्प से पहले पूरे लोगों को मन की सफाई करनी होगी। वहां मैल होगा तो असर नौलो और धारों की पानी में भी साफ दिखेगा। इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की भूमिका नेतृत्व की नहीं बल्कि एक सहयोगी की होनी चाहिए।। उस समय देवभूमि का शिल्प अपने चरम पर था तो स्थानीय शिल्पकारों ने बेजोड़ कलाकारी के रूप में पानी के प्राकृतिक स्रोतों को अद्भुत स्वरूप देने के लिए स्थानीय खदानों से प्राप्त सुडौल कटवे पत्थरों की सिल्लियों को हथोडी छेनी से तराशकर सुंदर आकर्षक नौलों का निर्माण किया था। इसे स्वच्छ और सुरक्षित रखने के लिए बाहर से एक कमरे जैसा आकार दिया गया है। कमरे की चिनाई स्थानीय पत्थरों को तराशकर किया गया है। पत्थरों की इस चिनाई में जोड़ ऐसे हैं कि लगता है कि ये पत्थर आपस में जुड़े हुए हैं। और तो और इसके प्रवेश द्वार पर लगे चौखट भी पत्थरों के खंभों से ही बनाया गये है। इस पर भी शानदार नक्काशी की गई है। ऊपरी छत पर भी स्थानीय खदानों के शानदार सपाट पठाल लगाये गये हैं। छत के बाहरी हिस्सों को संबलित करने के लिए बीच में भी पाषाण खंभ लगाये गये है। खंभों पर आकर्षक नक्काशी की गई है।इस की पवित्रता को अक्षुण्य रखने के लिए जलदेवता के रूप में भगवान विष्णु की शेषशायी मूर्ति की स्थापना की गई है। स्तम्भों पर शस्त्र लिए द्वारापाल, अश्वरोही, नृत्यांगनाएं, मंगलघट, कलशधारिणी गंगा.यमुना तथा सर्प, पक्षी की आकृतियों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। प्रवेश द्वारा के स्तम्भों को द्वाराशाखाओं से भी सुसज्जित करने की परम्परा भी प्रचलित थी स्यूनराकोट अल्मोड़ा के इस ऐतिहासिक नौले में वीणावादिनी सरस्वती, दशावतार एवं महाभार के दृश्य उल्लेखनीय है। नौलों के आस.पास सिलिंग, पीपल, बड़ जैसे दीर्घजीव धार्मिक दृष्टि से पवित्र माने जाने वाले वृक्ष लगाये जाते थे। यहां के ग्राम्य जीवन के लिए नौला कितना महत्वपूर्ण माना जाता था यह इसकी शिल्पकला और इसके आसपास लगाये गये वृक्षों को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । नौलों के ह्रास का कारण हमारी भौतिकतावादी संस्कृति है। जहाँ हम विकास के नाम पर भूमिगत पाइप लाइनों को घर के अधिकांश कमरों में जलापूर्ति हेतु लाये हैं। इससे प्रकृति पर हमारी निर्भरता कम कर रही है। अतः नौला जैसी प्राचीन धरोहर जो हमारे जीवन की मूल आवश्यकताओं से जुड़ी है, को संरक्षित करना होगा। यदि समय रहते समाज में इनके प्रति सही सोच पैदा नहीं हुई तो नौला भी अतीत का हिस्सा बन जाएँगे।भूगर्भशास्त्री पद्मभूषण डॉ. केएस वल्दिया ने 80 के दशक में चेताया था कि हमारी लापरवाही के चलते सूख चुके किसी प्राकृतिक जलस्रोत को दुनिया का कोई भी इंजीनियरिंग कौशल दोबारा जीवित नहीं कर सकता.जल स्रोत को इस प्रकार संग्रहण किया गया है कि अत्यंत मनमोहक यह यह बारामासी नौला स्वच्छ व सुरक्षित रह सके जिसने इस अद्भुत शिल्प का निर्माण किया था। पूर्वजों द्वारा संजोई गई इस अमूल्य धरोहर के संरक्षण का जिम्मा अब हमारी नई पीढ़ी पर है जिससे प्रकृति का यह अनमोल जलभंडार हमारी जीवन धारा में निरंतर प्राणाभिसिंचन करता रहे ।यदि हिमालयी क्षेत्रों में भी जल के प्रति श्रद्धा और पवित्रता की भावना को समाज में फिर से स्थापित करने की ईमानदार कोशिश की जाए तो जलग्रहण क्षेत्रों को बचाना आसान हो सकता है.पहाड़ का पानी और जवानी अब सिर्फ जुमला बन कर ना रहे हकीकत मे इसमे अब अमल हो यही उम्मीद है. सांस्कृतिक विरासत के तौर पर हिमालय की यह पुरातन परम्परा पुनः समृद्धता की ओर कदम बढ़ा सकेगी।