विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के साथ भर्ती में जवाबदेही ? 

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विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के साथ भर्ती में जवाबदेही ? 

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

उत्तराखंड राज्य में इन दिनों से भर्तियों में हुए घोटाले की जांच चल रही है, जिसमें से 5 भर्तियों की जांच एसटीएफ तो वहीं, एक भर्ती की जांच विजिलेंस की टीम कर रही है. मुख्य रूप से देखें तो स्नातक स्तरीय परीक्षा से शुरू हुई जांच अब कई भर्तियों को अपने लपेटे में ले चुकी है. स्नातक स्तरीय परीक्षा के साथ ही सचिवालय रक्षक भर्ती, कनिष्ठ सहायक भर्ती के बाद अब वन दरोगा भर्ती की जांच एसटीएफ कर रही है. वहीं, सब इंस्पेक्टरों की भर्ती की जांच विजिलेंस को सौंपी गई है. इसके अलावा विधानसभा में हुई बैक डोर से भर्ती की जांच के लिए विधानसभा अध्यक्ष ने एक्सपर्ट कमेटी गठित कर दी है, जो साल 2012 से 2022 के बीच विधानसभा में हुई भर्तियों की जांच कर रही है. विश्वविद्यालय, में शैक्षणिक.  विभिन्न गैर शैक्षणिक पदों की जांच कर कर दी प्रदेश उपाध्यक्ष ने बताया कि प्रदेश में जिस तरह से एक के बाद एक भर्ती घोटाले और बैक डोर से हुई भर्ती के मामले सामने आ रहे हैं. उसने देव भूमि को कलंकित करने का काम किया है. यही नहीं, जनता के बीच इस घोटाले को लेकर कोई अच्छा संदेश नहीं गया है. साथ ही कहा कि अधिकांश भर्ती घोटाले सरकार के कार्यकाल में हुए हैं. ऐसे में जीरो टॉलरेंस की बात करने वाली सरकार भले ही जांच करा रही हो, लेकिन इसका एक गलत संदेश जनता के बीच में गया है.ऐसे में आने वाले समय में भाजपा के लिए जनता को जवाब देना आसान नहीं होगा. भले ही बीजेपी सरकार ने सभी भर्ती घोटालों की जांच करा रही हो और कुछ मामलों की जांच के लिए कमेटियां भी गठित कर दीं हो. फिर भी इन सभी भर्ती घोटाले और बैक डोर भर्ती का खामियाजा भाजपा को आने वाले समय में भुगतना पड़ सकता है. विश्वविद्यालय, में शैक्षणिक.  विभिन्न गैर शैक्षणिक पदों राज्य गठन की 22 वर्ष पर, जिस तरह के मुद्दों पर आधारित ईमानदार विमर्श की अपेक्षा की जा रही थी, वह राजनीतिक गहमा-गहमी व वोटों की राजनीति में कहीं खो गया। उत्तराखंड को बनाने में आमजन की सीधी सहभागिता रही, इसमें हर वर्ग का संघर्ष रहा, लेकिन जब राज्य के बारे में सोचने व सरकारों के कार्यो के आकलन का मौका आया तो सभी सरकार से अपनी-अपनी मांगों को मनवाने में लग गए। ऐसा लग रहा है कि उत्तराखंड राज्य का गठन ही कम काम बेहतर पगार, अधिक पदोन्नति और ज्यादा सरकारी छुट्टियों, भर्तियों में अनियमितता व विभिन्न निर्माण कार्यो की गुणवत्ता में समझौता करने के लिए हुआ है। मानो विकास का मतलब विद्यालय व महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पतालों व मेडिकल कालेजों के ज्यादा से ज्यादा भवन बनाना भर है, न कि उनके बेहतर संचालन की व्यवस्था करना। हर साल सड़कें बनाना मकसद है, पर हर साल ये क्यों उखड़ रही हैं, इसकी चिंता न तो सरकारें करती हैं और न ही विपक्ष इस पर सवाल उठाता है। जाहिर है कि करोड़ों रुपये के निर्माण में लाभार्थी पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने हैं।नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं। जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी। मतदाताओं के सामने खड़ी समस्याओं के समाधान से अधिक उनकी भावनाओं के दोहन की फिक्र रही है। कर्मचारी-शिक्षक सबसे बड़ा वोट बैंक बन कर उभरा है। स्थिति यह है कि आर्थिक स्थिति कैसी भी हो कर्मचारी-शिक्षक यूनियनों के सामने सरकारें नतमस्तक होती रही हैं। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से ही उत्तराखंड के होनहार नौजवानों बेरोजगारों के रोजगार की राजनीतिक लूट का अड्डा बना हुआ है। सरकारी नौकरियों की भर्ती में लगातार घोटाले सामने आ रहे हैं और इसके खिलाफ राज्य के युवाओं का गुस्सा भी जगह जगह फूटता जा रहा है राजनीतिक सह पर लगातार अपनी मनमानीहैं। विश्वविद्यालय की स्वायत्तता और जवाबदेही तभी सुनिश्चित की जा सकती है जब कुलपति पद सहित विश्वविद्यालय की सभी नियुक्तियां पूर्ण पारदर्शिता एवं स्वच्छता के साथ हो। यही नहीं, राज्यपाल ने सभी विश्वविद्यालयों को असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर आदि शैक्षणिक पदों पर होने वाले साक्षात्कार की वीडियो रिकार्डिंग करने हेतु व्यवस्था से काफी हद तक निजात जवाबदेही तभी सुनिश्चित की जा सकती है जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए हमें प्रदर्शन के बेहतर मानदंड तय करने होंगे। वर्तमान मानदंड गणनात्मक हैं, जो कि शोधपत्र की संख्या, पेटेंट संख्या और ‘लीग टेबल रैंकिंग’ पर ही केंद्रितहैं। विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन अकादमिक श्रेष्ठता, संस्थात्मक क्षमता तथा सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदर्शन के आधार पर होनी चाहिए। किसी भी विवि द्वारा पैदा किए गए सभी ज्ञान उत्पादों जैसे पाठ्यक्रम, पेपर, संकाय सदस्य की पुस्तकें, पीएचडी शोध तथा छात्रों की रोजगार योग्यता – सभी का आकलन उनके आंतरिक मूल्य तथा सामाजिक-आर्थिक प्रासंगिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों को एक पारदर्शी और विश्वसनीय स्व-मूल्यांकन प्रक्रियाओं की स्थापना करनी होगी जैसा कि राष्ट्रीय विधि स्कूल और आईआईएम संस्थाओं में नजर आता है। शोध को अपनी ही योग्यता पर जांचा जा सकता है। संख्यात्मक तालिका के आधार पर मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ लग सकता है, पर यह ज्ञान उत्पादन के पैमाने का विकल्प नहीं बन सकता। विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय एक दिन में पैदा नहीं किए जा सकते। राज्य विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता का महत्व समझकर जनहित के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी उत्तराखंड विश्वविद्यालयों  में सरकारी नौकरी प्राप्त करने की प्रक्रिया को सांप-सीढ़ी का खेल बना दिया गया है नीति पर सवालिया निशान लगाती नजर आती है। लोकतंत्र दरअसल, जवाबदेही का दूसरा नाम है।

वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।