नैनीताल जिले के स्कूलों में गूंजेगा ‘गिर्दा’ के गीत
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य के एक आंदोलनकारी जनकवि थे,उनकी जीवंत कविताएं अन्याय के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा देतीं हैं. वह लोक संस्कृति के इतिहास से जुड़े गुमानी पंत तथा गौर्दा का अनुशरण करते हुए ही राष्ट्रभक्ति पूर्ण काव्यगंगा से उत्तराखंड की देवभूमि का अभिषेक कर रहे थे. हर वर्ष मेलों के अवसर पर देशकाल के हालातों पर पैनी नज़र रखते हुए झोड़ा- चांचरी के पारंपरिक लोककाव्य को उन्होंने जनोपयोगी बनाया. इसलिए वे आम जनता में ‘जनकवि’ के रूप में प्रसिद्ध हुए. आंदोलनों में सक्रिय होकर कविता करने तथा कविता की पंक्तियों में जन-मन को आन्दोलित करने की ऊर्जा भरने का गिर्दा’ का अंदाज निराला ही था. उनकी कविताएं बेहद व्यंग्यपूर्ण तथा तीर की तरह घायल करने वाली होती हैं “बात हमारे जंगलों की क्या करते हो,बात अपने जंगले की सुनाओ तो कोई बात करें.”मेहनतकश लोगों की पक्षधर उनकी कविता उन भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं की दम्भपूर्ण मानसिकता को चुनौती देती है,जो आजादी मिलने के बाद भी मजदूर-किसानों का शोषण करते आए हैं और अपनी भ्रष्ट नीतियों से यहां की भोली भाली जनता को पलायन के लिए विवश करते आए हैं-‘हम ओड़ बारुड़ि, ल्वार, कुल्ली कभाड़ी,जै दिन यो दुनी बै हिसाब ल्यूंलो, एक हाङ नि मांगुल, एक फाङ न मांगुंल, सबै खसरा खतौनी हिसाब ल्यूंलो.”उत्तराखंड राज्य आन्दोलन से अपना नया राज्य हासिल करने पर उसके बदलाव को व्यंग्यपूर्ण लहजे में बयाँ करते हुए गिर्दा कुछ इस अंदाज से कहते हैं कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ, दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले, पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं.”गिर्दा राज्य की राजधानी गैरसैण क्यों चाहते थे? उसके समर्थन में वे कहते थे- “हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी ‘औकात’ के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी ‘डिबिया सी’ राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी ‘काले पाथर’ के छत वाली विधानसभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधानसभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कालेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास.” गिर्दा ने अपनी कविता ‘जहां न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा’ के द्वारा देश की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपना नज़रिया रखा तो दूसरी ओर उत्तराखंड की सूखती नदियों और लुप्त होते जलधाराओं के बारे में भी उनकी चिंता ‘मेरि कोसी हरै गे’ के जरिए उनकी कविता नदी व पानी बचाओ आंदोलन के साथ सीधा संवाद करती है.हिमालय के जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए जीवन भर संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने विश्व पर्यावरण की चुनौतियों से भी संवाद किया है. आज बड़े बड़े बांधों के माध्यम से उत्तराखंड की नदियों को बिजली बेचने के लिए कैद किया जा रहा है,जिसकी वजह से नदियां सूखती जा रही हैं, वहां के नौले धारे आदि जलस्रोत सूखते जा रहे हैं. अनेक नदियों और जल संसाधनों से सुसम्पन्न उत्तराखंड हिमालय के मूल निवासी पानी की बूँद बूँद के लिए तरस रहे हैं. आज के सन्दर्भ में जब एक ओर समस्त देश जलसंकट की विकट समस्या से ग्रस्त है तो दूसरी ओर जल जंगल का व्यापार करने वाले जल माफिया और वन माफ़िया प्राकृतिक संसाधनों का इस प्रकार निर्ममता से दोहन कर रहे हैं, जिसका सारा ख़ामियाजा पहाड़ के आम आदमी को भुगतना पड़ रहा है. उत्तराखंड में अंधविकासवाद के नाम पर जल,जंगल और जमीन का इतना भारी मात्रा में दोहन हो चुका है कि चारों ओर कंक्रीट के जंगल बिछा दिए गए हैं और नौले, गधेरे सूखते जा रहे हैं, जिसके कारण पहाड़ के मूल निवासी पलायन के लिए मजबूर हैं.गिर्दा के गीतों में उत्तराखंड के जीवन स्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने की पीड़ा विशेष रूप से अभिव्यक्त हुई है.दरअसल, उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पहाड़ी राज्य के विकास की जो परिकल्पना गिर्दा ने की थी वह मूलतः पर्यावरणवादी थी. उसमें टिहरी जैसे बड़े बड़े बांधों के लिए कोई स्थान नहीं था. आज यदि गिर्दा जीवित होते तो विकास के नाम पर पहाड़ों के तोड़ फोड़ और जंगलों को नष्ट करने के खिलाफ जन आंदोलन का स्वर कुछ और ही तीखा और धारदार होता. गिर्दा की सोच पर्यावरण के साथ छेड़-छाड़ नहीं करने की सोच थी. उनका मानना था कि छोटे छोटे बांधों और पारंपरिक पनघटों, और प्राकृतिक जलसंचयन प्रणालियों के संवर्धन व विकास से उत्तराखंड राज्य के अधूरे सपनों को सच किया जा सकता है. गिर्दा कहा करते थे कि हमारे यहां सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारी के कारण पलायन का मार्ग खोलें,बल्कि ये सड़कें घर घर में रोजगार के अवसर जुटाने का जरिया बनें. एक पुरानी कहावत है- “पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आनी”. गिर्दा इस कहावत को उलटना चाहते थे. वे चाहते थे कि हमारा पानी,बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए बल्कि हमारे पनघटों, चरागाहों, लघु-मंझले उद्योग धंधों को भी ऊर्जा देकर खेत खलिहानों को हराभरा रखे और गांव गांव में बेरोजगार युवकों को आजीविका के साधन मुहैय्या करवाए ताकि पलायन की भेड़चाल को रोका जा सके.गिर्दा ने साहित्य जगत में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है. वह संस्कृतिकर्मी थे, उन्होंने हिंदी, कुमाउनी, गढ़वाली में गीत लिखे हैं, जिनमें उत्तराखंड आंदोलन, चिपको आंदोलन, झोड़ा, चांचरी, छपेली व जागर आदि के माध्यम से समाज को परिवर्तित करने पर बल दिया गया है. वे हमेशा समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे थे.लोककवि गिर्दा एक अजीब किस्म के फक्कड़ बाबा कवि थे. उनके फक्कड़ काव्य में फक्कड़पन का लहजा भी स्वयं भोगी हुई विपदाओं और कठिनाइयों से जन्मा था. वह खुद फक्कड़ होते हुए भी दूसरे फक्कड़ों की मदद करने का जज़्बा रखते थे.लखीमपुर खीरी में जब एक चोर उनकी गठरी चुरा रहा था तो उन्होंने उसे यह कहकर अपनी घड़ी भी सौप दी थी कि ‘यार, मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है.’ गिर्दा ने आजीविका के लिए लखनऊ में रिक्शा भी चलाया. उनके फक्कड़पन की एक मिसाल यह भी है कि उन्होंने मल्लीताल में नेपाली मजदूरों के साथ रह कर मेहनतकश कुली मजदूरों के दुःख दर्द को नजदीक से देखा था. भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए.हंसादत्त तिवाड़ी व जीवंती तिवाड़ी के उच्च कुलीन घर में जन्मे गिर्दा का यह फक्कड़पन ही था कि 1977 में वन आन्दोलन को प्रोत्साहित करने के लिए ‘हुड़का’ बजाते हुए सड़क पर आंदोलनकारियों के साथ कूद पड़े. उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर लगाकर ‘चलता फिरता रेडियो’ बन जाया करते थे और प्रतिदिन शाम को नैनीताल में तल्लीताल डांठ पर आंदोलन से जुड़े ताजा समाचार सुनाते थे. उनका व्यक्तित्व बहुआयामी व विराट प्रकृति का था. कमजोर और पिछड़े तपके की जनभावनाओं को स्वर प्रदान करना गिर्दा की कविताओं का मुख्य उद्देश्य था.“जैंता एक दिन त आलो वो दिन यू दुनीं में”‘गिर्दा’ का यह गीत उत्तराखंड आंदोलन के दौरान बहुत लोकप्रिय हुआ. इस गीत के बारे में ‘गिर्दा’ कहते हैं-“यह गीत तो मनुष्य के मनुष्य होने की यात्रा का गीत है. मनुष्य द्वारा जो सुंदरतम् समाज भविष्य में निर्मित होगा उसकी प्रेरणा का गीत है यह, उसका खाका भर है. इसमें अभी और कई रंग भरे जाने हैं मनुष्य की विकास यात्रा के. इसलिए वह दिन इतनी जल्दी कैसे आ जायेगा. इस वक्त तो घोर संकटग्रस्त-संक्रमणकाल से गुजर रहे है नां हम सब.लेकिन एक दिन यह गीत-कल्पना जरूर साकार होगी इसका विश्वास है और इसी विश्वास की सटीक अभिव्यक्ति वर्तमान में चाहिए, बस.”गिर्दा चाहते थे कि सरकारें व राजनीतिक दल अपने राजनैतिक स्वार्थों और सत्ता भोगने की लालसा से ऊपर उठकर नए राज्य की उन जन-आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को पूरा करें जिसके लिए एक लम्बे संघर्ष के बाद उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ था. पर विडंबना यह रही कि उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के लम्बे संघर्ष के बाद राजनेताओं ने इस राज्य की जो बदहाली की उससे सुराज्य का सपना देखने वाले इस स्वप्नद्रष्टा कवि का सपना टूट गया. गिर्दा की कविताओं में इस अधूरे सपनों का दर्द भी छलका है.वे कहा करते थे-“हम भोले-भाले पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है. पहले दूसरे छलते थे और अब अपने छल रहे हैं.”उन्हें इस बात का भी मलाल रहा कि हमने देश-दुनिया के अनूठे ‘चिपको आन्दोलन’ वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन सच्चाई कुछ और थी.दरअसल, गिर्दा को आखिरी दिनों में यह टीस बहुत कष्ट पहुंचाती रही कि शासन सत्ता ने उत्तराखंड राज्य के आंदोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने शासकीय अधिकारों को तो मजबूत किया किंतु आंदोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उनके जल, जंगल, जमीन से जुड़े मौलिक अधिकार छीन लिए. उनके अनुसार 1972 में वन आदोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा वनों से जीवन-यापन के लिए अपने अधिकार लेने की लड़ाई थी. सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी. स्थानीय जनता ने इसके खिलाफ आंदोलन किया, लेकिन बदले में पहाड़वासियों को जो वन अधिनियम मिला,उसके तहत जनता अपनी भूमि के निजी पेड़ों तक को नहीं काट सकती है किन्तु अपने जीवन यापन की जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे गिनी चुनी लकड़ी लेने के लिए भी मीलों दूर जाना पड़ता है. सरकार के इस रवैये के कारण आमजनता का अपने वनों से आत्मीयता का रिश्ता खत्म हो गया है और उन्हें सरकारी सम्पत्ति की निगाह से देखा जाने लगा है. सरकारी वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग और बिल्डर माफिया इन वनों को वेदर्दी से काटने लगे. पत्रकार जगमोहन ‘आज़ाद’ से बातचीत के दौरान ‘गिर्दा’ अपनी लोक-संस्कृति की सोच को स्पष्ट करते हुए कहते हैं“लोक-संस्कृति सामाजिक उत्पाद है, पूरा सामाजिक चक्र चल रहा है, ऐतिहासिक चक्र चल रहा है और इस चक्र में जो पैदा होता है वही तो हमारी संस्कृति है. संस्कृति का मतलब खाली मंच पर गाना या कविता लिख देना, घघरा और पिछोड़ा पहने से संस्कृति नहीं बनती है. संस्कृति तो जीवन शैली है, वह तो सामाजिक उत्पाद है. जिन-जिन मुकामों से मनुष्य की विकास यात्रा गुजरती है, उन-उन मुकामों के अवशेष आज हमारी संस्कृति में मौजूद है,यही तो ऐतिहासिक उत्पाद हैं जिन्हें इतिहास ने जन्म दिया है.”हिन्दी लोक साहित्य हो या कुमाउँनी लोक साहित्य, लोक संस्कृति से सम्बद्ध तथ्यात्मक समग्र जानकारी उनके पास होती थी. इसलिए उन्हें कुमाऊंनीं लोक साहित्य और संस्कृति का ‘जीवित एनसाइक्लोपीडिया’ भी माना जाता था. उत्तराखंड संस्कृति के बारे में ‘गिर्दा’ कहते हैं-“हमारी संस्कृति मडुवा, मादिरा, जौं और गेहूं के बीजों को भकारों, कनस्तरों और टोकरों में बचाकर रखने, मुसीबत के समय के लिए पहले प्रबंध करने और स्वावलंबन की रही है, यह केवल ‘तीलै धारु बोला’ तक सीमित नहीं है. आखिर अपने घर की रोटी और लंगोटी ही तो हमें बचाऐगी. गांधी जी ने भी तो ‘अपने दरवाजे खिड़कियां खुली रखो’ के साथ चरखा कातकर यही कहा था. वह सब हमने भुला दिया. आज हमारे गांव रिसोर्ट बनते जा रहे हैं. नदियां गंदगी बहाने का माध्यम बना दी गई हैं. स्थिति यह है कि हम दूसरों पर आश्रित हैं, और अपने दम पर कुछ माह जिंदा रहने की स्थिति में भी नहीं हैं.”गिर्दा‘ का जन्म 10 सितम्बर, 1945 को अल्मोड़ा जिले के हवालबाग के ज्योली तल्ला स्यूनारा में हुआ था. उनके द्वारा रचित बहुचर्चित रचनाएँ हैं- ‘जंग किससे लिये’ (हिंदी कविता संकलन), ‘जैंता एक दिन तो आलो’’ (कुमाउनी कविता संग्रह), ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (होली संग्रह), ‘उत्तराखंड काव्य’, ‘सल्लाम वालेकुम’ इत्यादि. इनके अतिरिक्त दुर्गेश पंत के साथ उनका ‘शिखरों के स्वर’ नाम से कुमाऊनीं काव्य संग्रह, व डा. शेखर पाठक के साथ ‘हमारी कविता के आखर’ आदि पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं हैं. गिर्दा नैनीताल समाचार, पहाड़, जंगल के दावेदार, जागर, उत्तराखंड नवनीत आदि पत्र-पत्रिकाओं से भी सक्रिय होकर जुड़े रहे. एक नाट्यकर्मी के रूप में गिर्दा ने नाट्य संस्था युगमंच के तत्वाधान में ‘नगाड़े खामोश है’ तथा ‘थैक्यू मिस्टर ग्लाड’ का निदेशन भी किया.‘गिर्दा’ एक प्रतिबद्ध रचनाधर्मी सांस्कृतिक व्यक्तित्व थे. गीत, कविता, नाटक, लेख, पत्रकारिता, गायन, संगीत, निर्देशन, अभिनय आदि, यानी संस्कृति का कोई आयाम उनसे से छूटा नहीं था. मंच से लेकर फिल्मों तक में लोगों ने ‘गिर्दा’ की क्षमता का लोहा माना. उन्होंने ‘धनुष यज्ञ’ और ‘नगाड़े खामोश हैं’ जैसे कई नाटक लिखे, जिससे उनकी राजनीतिक दृष्टि का भी पता चलता है. ‘गिर्दा’ ने नाटकों में लोक और आधुनिकता के अद्भुत सामंजस्य के साथ अभिनव प्रयोग किये और नाटकों का अपना एक पहाड़ी मुहावरा गढ़ने की कोशिश की. जीवन भर हिमालय के जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने सारे विश्व को दिखा दिया कि मानवता के अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाला कवि किसी जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त या देश तक सीमित नहीं होता. उनकी अन्तिम यात्रा में ‘गिर्दा’ को जिस प्रकार अपार जन-समूह ने अपनी भावभीनी अन्तिम विदाई दी उससे भी पता चलता है कि यह जनकवि किसी एक वर्ग विशेष का नही बल्कि वह सबका हित चिंतक होता है. नैनीताल जिले के सरकारी प्राइमरी स्कूलों से लेकर इंटरमीडिएट कॉलेज तक अब उत्तराखंड के मशहूर जनकवि गिरीश तिवारी उर्फ गिर्दा के गीत सुनाई देंगे. इन सभी स्कूलों की प्रार्थना सभा में मशहूर गीत ‘उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि मेरी पितृभूमि’ के स्वर गूजेंगे. गिरीश तिवारी उत्तराखंड के प्रसिद्ध पटकथा लेखक, गायक, कवि, संस्कृति प्रेमी, पर्यावरणविद, सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार थे. गिर्दा को राज्य में ‘जनगीतों का नायक’ भी कहा जाता है.गिरीश तिवारी उर्फ गिर्दा का जन्म 9 सितंबर, 1945 को अल्मोड़ा के ज्योली गांव में हुआ था.युवा अवस्था में ही वह रोजगार के लिए अल्मोड़ा से बाहर चले गए थे. साल 1967 में लखनऊ के गीत और नाटक विभाग में उनकी नौकरी लगी. युवा रचनाकारों के साथ रहकर उन्होंने काफी नाटकों की प्रस्तुति भी तैयार की, जिनमें प्रमुख तौर पर कृष्ण, होली और गंगाधर शामिल हैं. साल 1968 में उन्होंने दुर्गेश पंत के साथ मिलकर ‘शिखरों के स्वर’ प्रकाशित की, जो कुमाऊंनी कविताओं का एक संग्रह है. जिला प्रशासन की तरफ से नैनीताल जिले के सरकारी स्कूलों में उनके गीतों को लाने का मकसद बच्चों को अपने राज्य, अपनी मातृभूमि, अपने हिमालय के महत्व को समझाना है. गिर्दा के देहावसान के बाद जिस तरह नैनीताल के मन्दिरों की प्रार्थनाओं,गुरुद्वारों के सबद कीर्तन और मस्जिदों में नमाज के बाद उनका प्रसिद्ध गीत “आज हिमालय तुमन कँ धत्यूँछ, जागो, जागो हो मेरा लाल” के स्वर बुलन्द हुए, उन्हें सुन कर एक बार फिर यह अहसास होने लगता है कि धार्मिक कर्मकांड की विविधता के बावजूद हम मनुष्यों की जल,जंगल और जमीन से जुड़ी समस्याएं तो समान हैं. उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाला कोई ‘गिर्दा’ जैसा फक्कड़ जनकवि जब विदा लेता है तो पीड़ा होती ही है. बस केवल रह जाती हैं तो उसके गीतों की ऊर्जा प्रदान करने वाली भावभीनी यादें-“ततुक नी लगा उदेख‚ घुनन मुनई न टेक.जैंता एक दिन त आलो वो दिन यू दुनीं में..” इस साल उत्तराखंड गौरव सम्मान को कवि लेखक एवं गीताकार स्वं गिरीश चन्द्र तिवारी ‘गिर्दा’, को सम्मानित किया है. मुख्यमंत्री धामी के कदम की प्रशंसा करते हुए कहा कि राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर राज्य निर्माण के संघर्ष को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल करने की घोषणा जनभावना का सम्मान है। उन्होंने कहा कि नई पीढ़ी के सामने आंदोलनकारियों की शहादत, कुर्बानियों एवं उनके विचारों से जुड़ी अधिकृत जानकारी आना बेहद जरूरी है। इसके लिए इसका स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना बेहतर कदम है। उन्होंने कहा कि यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी व नई पीढ़ी का अधिकार भी है कि किस तरह अथाह कष्टों व बाधाओं को सहते हुए पूर्णतया अहिंसात्मक तरीके से हमने पृथक राज्य प्राप्त किया है। मुजफ्फरनगर नरसंहार, खटीमा, मसूरी, श्रीयंत्र टापू गोलीकांड जैसे अनेकों घावों के दर्द का भी उन्हें अहसास हो। ताकि एक कृतज्ञता का भाव भी उनके मन मस्तिष्क में जागृत हो।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।