हिमालय का अस्तित्व संकट में क्यों है?

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हिमालय का अस्तित्व संकट में क्यों है?

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हिमालय के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विडम्बना तो यह है कि यह सिलसिला बरसों से जारी है और दुख की बात यह है कि बरसों से उत्तराखंड के लोग और पर्यावरण विज्ञानी इसके खिलाफ पुरजोर आवाज उठा रहे हैं लेकिन लगता है कि सरकार इस विषय पर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है।|
ऐसा लगता है कि सरकार इस बाबत आंदोलनकारियों की मांग को दरगुज़र करने का पूरी तरह ही मन बना चुकी है। जनता की आवाज को अनसुनी करने और सत्ताधारी नेताओं द्वारा जनता के अनवरत संघर्ष को नकारना उसके हठी रवैय्ये का जीता जागता सबूत है। असलियत यह है कि समूचा हिमालय वह चाहे देवभूमि उत्तराखंड में राष्ट्रीय नदी गंगा पर बांध निर्माण का मसला हो, समूचे राज्य मे पर्यटन की दृष्टि से आल वैदर रोड के निर्माण का मसला हो या ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेल लाइन के निर्माण का मसला हो, सरकार विकास के नाम पर सारे हिमालय को खण्डखण्ड करने पर तुली है। हाँ इस बाबत इतना जरूर हुआ कि राज्य के लोगों, समाज सेवियों और जल, जंगल, जमीन के हितों की रक्षा में लगे कार्यकर्ताओं ने हिमालय क्षेत्र में यहां की परिस्थिति अनुरूप कैसा विकास होना चाहिए, इस दृष्टिकोण के तहत तकरीबन 50 हजार लोगों के हस्ताक्षर युक्त एक ज्ञापन जिसे हिमालय लोकनीति का नाम दिया गया था, प्रधानमंत्री को भी भेजा था जिसके उपरांत इतना अवश्य हुआ कि देश की सर्वोच्च नागरिक संस्था संसद तक में इस विषय पर लम्बी बहस हुई और यह मसला सड़कों पर भी लम्बे समय तक हुए प्रदर्शनों का सबब बना।
वह बात दीगर है कि इन ज्वलंत विषयों पर आजतक कोई तार्किक परिणिति जनमानस को होती दिखाई नहीं दी। होना तो यह चाहिए था कि इस हिमालयी राज्य में बनी विकास नीति में ऐसे प्रावधान प्रमुखता से शामिल किये जाने चाहिए जो राज्य के लोगों के हित में हों, उनको वे सभी सुविधाएं हासिल हों जिनके वे हकदार हैं और वहां की जल, मिट्टी, वायु, जंगल सहित प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता अक्षुण्ण बनी रहे। यह भी कि विकास का आधार और नीतिनिर्माण स्थानीय परिस्थिति और भावी आपदाओं से बचाव को दृष्टिगत रखते हुए हो। साथ ही लोग अपनी आजीविका जिस भांति वह बरसों से चलाते रहे हैं, उसमें कोई व्यवधान पैदा हो। चिपको आंदोलन इसका जीवंत प्रमाण है कि विकास की कार्य योजना का कथित वैज्ञानिक आधार यहां के लोगों के हित में कभी नहीं रहा और सरकारी वन प्रबंधन योजनाओं को साधारण लोगों के साथ महिलाओं तक ने केवल अस्वीकारा बल्कि उसके विरोध में उनकी आवाज वन संरक्षण और वनाधिकारों की दिशा में समूची दुनिया की आवाज बनी और उसके आगे सरकार तक को झुकना पड़ा। असलियत में चिपको आंदोलन पर्यावरणीय चेतना का ऐसा आंदोलन है, जिसने तथाकथित वन विशेषज्ञों और वन व्यवस्थापकों की गलत नीतियों को न केवल उजागर किया बल्कि प्रबल जनमत के बलबूते सरकार को अपनी नीतियों के बारे में नए सिरे से सोचने पर विवश किया। करीब पांच करोड़ वर्ष पहले जब यूरेशियन टैक्टोनिक प्लेट से भारतीय प्लेट आकर टकराई, तो हिमालय का उभार प्रारंभ हुआ। विश्व से डायनासोरों का राज खत्म हो रहा था। उसके बाद करोड़ों वर्षों के जैविक विकास एवं भौगोलिक परिवर्तनों के फलस्वरूप मानव सभ्यता का उद्भव हुआ और पामीर के पठार, हिमालय व हिंदूकुश पर्वत शृंखलाएं बनती चली गईं। भारतीय प्लेट आज भी पांच सेमी प्रति वर्ष की दर से यूरेशियन प्लेट को उत्तर की ओर धकेल रही है, फलस्वरूप हिमालय लगातार ऊंचा होता जा रहा है। यह चलता रहेगा, इसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। अतः कह सकते हैं कि हिमालय विश्व की सबसे अस्थिर पर्वत शृंखला है। इसी कारण हिमालय क्षेत्र सर्वाधिक भूकंप प्रभावित क्षेत्र बन जाता है। भूगर्भीय दबाव व पर्यावरणीय परिवर्तन स्थिर नहीं होते, लगातार चलते रहते हैं।  
सवाल है कि क्या मानव सभ्यतागत विकास, शहरीकरण, विकास संबंधी कार्य-बांध, सड़क व सुरंग निर्माण पर्यावरण के इस हिमालयी संकट के कारण हैं? इसका कोई सीधा उत्तर दिया जाना संभव नहीं है। आप नहीं जानते कि 1991 में उत्तरकाशी में आया 6.6 रिक्टर स्केल का भूकंप, जिसमें बड़े पैमाने पर धन-जन व पर्यावरण की क्षति हुई थी, उसमें कितना हिस्सा टैक्टोनिक प्लेट के तनाव की उर्जा का है और कितना अनियंत्रित नगरीकरण व इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास का। जोशीमठ यदि बिना आबादी का मात्र वनक्षेत्र ही होता, तो क्या यह धंसान, जो जियोलोजिकल कारणों से हो रहा है, न हुआ होता? यह कहना संभव नहीं है। भूगर्भीय परिवर्तन की ऊर्जा बहुत व्यापक है। उस पर मानवीय नियंत्रण असंभव है। हमें पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप अपनी जीवन पद्धति को समायोजित करना चाहिए, उसका अतिक्रमण करके नहीं।
दरअसल जो महत्वपूर्ण है, वह है हमारा आपदा प्रबंधन, जो अत्यंत उच्चकोटि का विश्वस्तरीय होना चाहिए। खतरे का सही आकलन, चेतावनी का प्रेषण, आबादी की आपात निकास व्यवस्थाएं न की गईं, तो जन-धन की क्षति से बचा न जा सकेगा। मैं उत्तरकाशी भूकंप त्रासदी के समय गढ़वाल में नियुक्त था। मैंने देखा कि जो मकान पत्थर व लकड़ी की पुरानी पद्धतियों से बने थे, उनकी क्षति कंकरीट-सरिया से बने मकानों की तुलना में कम थी। पहाड़ों के गांव व मकान हजारों वर्ष के पर्यावरणीय अनुभवों के अनुसार विकसित हुए हंै। बिना पर्वतीय ढलान का सहारा लिए आयतित डिजाइनों पर खड़े कर दिए गए मकान पर्यावरण आपदाओं को झेल नहीं पाते। प्रायः संकट का कारण बनते हैं। पर्वतों के वनीकरण का ह्रास पारिस्थितिकी संकट का एक बड़ा कारण है। देवभूमि में तीर्थयात्रियों को सुविधाएं देने के नाम पर बड़े पैमाने पर होटलों, गेस्टहाउसों, नागरिक सुविधाओं का विकास हो रहा है। हमने नदियों के किनारों की नजूल जमीनों पर पांच से आठ मंजिला नए मंदिरों का निर्माण देखा है। इन अवैध निर्माणों के नक्शे तो कोई भी प्राधिकरण पास ही नहीं कर सकता, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र को दूषित कर रहे ये निर्माण पर्वतों के सीमित संसाधनों पर भार बने हुए भविष्य की त्रासदियों को आमंत्रण दे रहे हैं। जहां आबादी का दबाव पर्यावरणीय सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा हो, वहां दीर्घकालिक योजनाएं अमल में लाई जा सकती हैं। 
वन एवं राजस्व विभाग एक संयुक्त रणनीति पर कार्य कर सकते हैं। जिन गांवों में पेयजल, बिजली और सड़क जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने में समस्या हो रही है, उनकी आबादी को तलहटियों की राजस्व भूमि पर लैंड एक्सचेंज नीति के तहत स्थानांतरित किया जा सकता है। जो गांव पहाड़ पर एक सौ एकड़ का था, उसे यदि मैदान में राजस्व या वन भूमि में ले आया जाए, तो संभवतः 50 एकड़ भूमि ही उनके लिए अतिसुविधाजनक होगी। इस तरह पर्वतीय आबादी के वे बहुत से गांव, जिनके भविष्य में पर्यावरणीय संकट में फंस जाने की आशंका है, सुरक्षित ले आए जा सकेंगे। वन विभाग के स्वाभाविक वनीकरण के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप वन क्षेत्र को बढ़ाने के लक्ष्य की भी पूर्ति हो सकेगी। हमारा संकट अस्थिर क्षेत्रों में हुए अनियंत्रित बसाहट को लेकर है। कोई कारण नहीं कि पर्यावरण व प्रकृति, पारिस्थितिकी तंत्र का सम्मान करते हुए हम कोई मध्यमार्ग न निकाल सकें।दरअसल जो महत्वपूर्ण है, पन बिजली संयत्रों, आल वैदर रोड आदि विकास के नाम पर सुरंग आधारित परियोजनाओं के निर्माण से इस हिमालयी राज्य में ऐसी स्थितियों पैदा की जा रही हैं जो यहां के जंगल, जमीन की नमी को तो बर्बाद करेगी ही, बर्फ भी नहीं टिक पाएगी और नदियां सूख जाएंगी। जल स्रोतों का सूखना भावी आपदा का संकेत दे ही रहे हैं। उस स्थिति में जबकि राज्य में तकरीबन सैकड़ों सुरंग आधारित परियोजनाओं पर काम जारी है। 600 से अधिक सुरंग आधारित बांध प्रस्तावित हैं, जिसके लिए हजारों किलोमीटर लम्बी सुरंगे बनेंगी। इसके चलते तकरीब 500 से ज्यादा गांव तबाह हो जाएंगे। बांधों के लिए किए जाने वाले विस्फोटों से जहां पहाड़ अंग-भंग होंगे, वहीं उनका मलबा नदियों में जाएगा, जो बाढ़ की भयावहता में बढ़ोतरीकरेगा।विकास के नाम पर पहाड़ों को विस्फोट के जरिए ध्वस्त कर हिमालय के विनाश का जो सिलसिला जारी है यह वास्तव में जहां बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाओं को तो आमंत्रण दे ही रहा है जबकि बीते बरस की आपदाएं विकास के दुखद परिणामों की साक्षी हैं। ऋषिकेश से कर्ण प्रयाग रेल लाइन का 125 किलोमीटर का निर्माण जिसमें 105 किलोमीटर का ट्रैक सुरंगों से होकर जाएगा, गंगोत्री-यमुनोत्री के लिए भी प्रस्तावित 121 किलोमीटर की रेल लाइन जिसमें 70 फीसदी ट्रैक सुरंगों।में होकर ही गुजरेगा और देहरादून से टिहरी बांध के किनारे होती हुई 32 किलोमीटर का सड़क मार्ग और देहरादून से मसूरी हेतु सुरंग से होकर सड़क मार्ग यह साबित करते हैं कि यदि ऐसे विकास पर अंकुश नहीं लगाया गया, उस स्थिति में वह दिन दूर नहीं जब देवभूमि उत्तराखंड को भीषण आपदाओं का सामना तो करना ही होगा, इसकी आंच से देश की राजधानी भी अछूता नहीं रह पाएगी। वह है हमारा आपदा प्रबंधन, जो अत्यंत उच्चकोटि का विश्वस्तरीय होना चाहिए। खतरे का सही आकलन, चेतावनी का प्रेषण, आबादी की आपात निकास व्यवस्थाएं न की गईं, तो जन-धन की क्षति से बचा न जा सकेगा।

लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।