धरती पर जीवन के लिए कितनी अहम है ओजोन परत

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धरती पर जीवन के लिए कितनी अहम है ओजोन परत

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड

प्रत्येक साल विश्व ओजोन दिवस 16 सितंबर को मनाया जाता है. इसका मुख्य उद्देश्य विश्वभर के लोगों के बीच पृथ्वी को सूर्य की हानिकार अल्ट्रा वाइलट किरणों से बचाने तथा हमारे जीवन को संरक्षित रखनेवाली ओजोन परत के विषय में जागरूक करना है.ओजोन परत के बिगड़ने से जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है. जलवायु परिवर्तन से धरती का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन से तथा तापमान बढ़ने से कई तरह की बीमारीयां फैल रही हैं. विश्वभर में इस गंभीर संकट को देखते हुए ही ओजोन परत के संरक्षण को लेकर जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है. पहली बार विश्व ओजोन दिवस साल 1995 में मनाया गया था. यह दिवस जनता के बारे में पर्यावरण के महत्व तथा इसे सुरक्षित रखने के महत्वपूर्ण साधनों के बारे में शिक्षित करता है. इसे मनाने का उद्देश्य धरती पर ओजोन की परत का संरक्षण करना है. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने साल 1994 में 16 सितंबर को ‘ओजोन परत के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय ओज़ दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की. इस दिन ओजोन परत के संरक्षण के लिए साल 1987 में बनाए गए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किया गया था. ओजोन परत की खोज साल 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी. ओजोन परत गैस की एक परत है जो पृथ्वी को सूर्य की हानिकारक किरणों से बचाती है. यह गैस की परत सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों के लिए एक अच्छे फिल्टर (छानकर शुद्ध करना) का काम करती है. यह परत इस ग्रह के जीवों के जीवन की रक्षा करने में सहायता करती है. यह पृथ्वी पर हानिकारक पराबैंगनी किरणों को पहुंचने से रोक कर मनुष्यों के स्वास्थ्य तथा पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करता है.ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के वैज्ञानिकों ने साल 1985 में सबसे पहले अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत में एक बड़े छेद की खोज की थी. ओजोन एक हल्के नीले रंग की गैस होती है. ओजोन परत में वायुमंडल के अन्य हिस्सों के मुकाबले ओजोन (O3) की उच्च सांद्रता होती है. यह परत मुख्य रूप से समताप मंडल के निचले हिस्से में पृथ्वी से 20 से 30 किलोमीटर की उंचाई पर पाई जाती है. परत की मोटाई मौसम एवं भूगोल के हिसाब से अलग– अलग होती है. पराबैगनी किरण सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली एक किरण है जिसमें ऊर्जा बहुत ज्यादा होती है. यह ऊर्जा ओजोन की परत को धीरे-धीरे पतला कर रही है. पराबैगनी किरणों की बढ़ती मात्रा से चर्म कैंसर, मोतियाबिंद के अतिरिक्त शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है. इसका असर जैविक विविधता पर भी पड़ता है तथा कई फसलें नष्ट हो सकती हैं. यह किरण समुद्र में छोटे-छोटे पौधों को भी प्रभावित करती है, जिससे मछलियों और अन्य प्राणियों की मात्रा कम हो सकती है. ओजोन परत की कमी का मुख्य कारण मानव गतिविधि है, जिसमें मुख्य रूप से मानव निर्मित रसायन होते हैं जिनमें क्लोरीन या ब्रोमीन होता है. इन रसायनों को ओजोन डिप्लेटिंग सबस्टेंस (ओडीएस) के रूप में जाना जाता है. 1970 की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने स्ट्रैटोस्फेरिक ओजोन में कमी देखी और यह पोलर रीजन में अधिक प्रमुख पाया गया. मुख्य ओजोन-क्षयकारी पदार्थों में क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी),कार्बनटेट्राक्लोराइड, हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन(एचसीएफसी) और मिथाइल क्लोरोफॉर्म शामिल हैं. कभी-कभी ब्रोमिनेटेड फ्लोरोकार्बन के रूप में जाना जाने वाला हैलोन भी ओजोन क्षरण करने में शक्तिशाली होता है. ओडीएस पदार्थों का जीवनकाल लगभग 100 वर्ष का होता है. आर्कटिक पर ओजोन की कमी बहुत बड़ी थी. वैज्ञानिकों का मानना है कि समताप मंडल में ठंड के तापमान सहित असामान्य वायुमंडलीय परिस्थितियां जिम्मेदार थीं. यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, ठंडे तापमान (-80 डिग्री सेल्सियस से नीचे), सूरज की रोशनी, हवा के क्षेत्र और क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) जैसे पदार्थ आर्कटिक ओजोन परत के क्षरण के लिए जिम्मेदार थे.रिपोर्ट में कहा गया है कि ध्रुवीय सर्दियों के अंत तक उत्तरी ध्रुव पर पहली धूप ने इस असान्य रूप से मजबूत ओजोन परत में कमी की थी. जिससे छेद का निर्माण हुआ, लेकिन इसका आकार अभी भी छोटा है. जो दक्षिणी गोलार्ध में देखा जा सकता है. 2018 के ओजोन डिप्लेशन डेटा के वैज्ञानिकों के आंकलन के अनुसार, समताप मंडल के कुछ हिस्सों में ओजोन परत 2000 के बाद से 1-3 प्रतिशत की दर से रिकवर हुई है. रिपोर्ट में कहा गया है. कि इस अनुमानित दरों पर, उत्तरी गोलार्ध और मध्य अक्षांश ओजोन को 2030 तक ठीक होने की भविष्यवाणी की गई, इसके बाद 2050 के आस-पास दक्षिणी गोलार्ध और ध्रुवीय क्षेत्रों में 2060 तक ठीक होने का अंदाजा लगाया गया. /दुनियाभर में करीब 2 लाख से ज्यादा बड़े ग्लेशियर हैं और ग्लोबल वार्मिंग की वजह से करीब करीब हर ग्लेशियर में मौजूद बर्फ ने पिघलना शुरू कर दिया है। ग्लेशियर को ही धरती के लिए मीठे पानी का भंडार कहा जाता है और ग्लेशियर से पिघलने वाली बर्फ से जो पानी मिलता है, उसपर करोड़ों लोगों की जिंदगी निर्भर करती है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में धरती पर कार्बन उत्सर्जन, जीवाश्म ईंधनों का बेतहाशा इस्तेमाल हुआ है, जिसकी वजह से ओजोन परत में छेद भी हुआ है और इसका असर सीधे ग्लेशियर पर पड़ता है। जिसको लेकर इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने दो महीने पहले रिपोर्ट दी थी कि इस सदी के अंत कर हिमालय के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ को खो देंगे और अगर दुनिया में प्रदूषण इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो साल 2100 तक यूरोप के 80 प्रतिशत ग्लेशियर पूरी तरह से पिघल जाएंगे और लोगों के प्यासे मरने की नौबत आ जाएगी।ग्लेशियर का पिघलना पूरी मानव जाति के अस्तित्व के ऊपर बेहद गंभीर संकट ला सकता है क्योंकि दुनिया की बड़ी आबादी का जीवन सिर्फ और सिर्फ ग्लेशियर की वजह से टिका हुआ है। हिमालय के ग्लेशियर से जो पानी निकलता है, उसपर करीब 2 अरब यानि 200 करोड़ लोग निर्भर हैं। खेती के लिए इन्हीं ग्लेशियर से पानी मिलता है तो पीने का पानी भी कदरत यहीं से देता है और अगर ग्लेशियर से पानी मिलना बंद हो जाए तो साउथ एशिया के तमाम देश, जिसमें भारत, पाकिस्तना, नेपाल, बांग्लादेश और भूटान सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।यह पता करना मुश्किल है कि रेडियोधर्मी पदार्थों के विघटन प्रक्रिया से निकलने वाली गर्मी पृथ्वी की केंद्र को गर्म रखने में कितना योगदान दे रही है. लेकिन ये सत्य है कि अगर पृथ्वी के अंदर की गर्मी ज्यादातर पुरातन गर्मी है तो वह बहुत जल्दी से ठंडी हो जाएगी. वहीं अगर इसमें रेडियोधर्मी पदार्थों की भूमिका है तो यह कोर की गर्मी ज्यादा लंबे समय तक चलेगी गर कोर तेजी से भी ठंडी हुई तो इस प्रक्रिया में बीसियों अरब साल लगेंगे. यह इतना ज्यादा समय है कि उससे पहले ही हमारा सूर्य ठंडा होकर खत्म हो चुका होगा जिसमें पांच अरब साल लगेंगे. वैज्ञानिक खास किस्म के सेंसर का उपयोग कर जियोन्यूट्रीनो की मदद से कोर के नाभिकीय ईंधन का पता लगाएंगे. बचा है, यह जानने के लिए वैज्ञानिक खास किस्म के सेंसर का उपयोग कर जियोन्यूट्रीनो की मदद लेंगे. स्ट्रेटोस्फीयर में ओजोन कई दूसरे तत्वों के बीच CFC से रिऐक्ट करती है। इसे लैब में बनाकर टेस्ट करना मुश्किल होता है। भूगोल और मौसमों के हिसाब से भी ओजोन की मात्रा बदलती रहती थी। यहां रिसर्च करना भी आसान नहीं होता है। खासकर 1970 में सैटलाइट टेक्नॉलजी इतनी अडवांस्ड नहीं थी कि उनके जरिए रिसर्च मुश्किल थी। ऐसे में कई लोग यह दावा करते थे कि रॉलेंड और मलीना की थिअरी के आधार पर इतने उपयोगी केमिकल्स के खिलाफ ऐक्शन नहीं लिया जा सकता। एरोसॉल कैन में इनका इस्तेमाल बंद किया जा सकता था लेकिन रेफ्रिजरेंट के तौर पर इनका कोई विकल्प न होने की वजह से इन पर बैन लगाना भी संभव नहीं था। धरती मां हमें इतनी बहुमूल्य पर्यावरण सुविधाएं प्रदान करती है जिनके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। इसलिए हमें इसका उपयोग करने के लिए अधिक कार्बनिक और समग्र रूप अपनाना चाहिए जहां सबको बिना किसी विनाश के लाभ मिलेगा। आज की जलवायु परिस्थितियों के लिए ओजोन की कमी मुख्य कारण है। यह आज एक विशाल आयाम में मौजूद नहीं है लेकिन यदि इस पर काबू नहीं पाया गया तो यह विकासशील और विकसित देशों के लिए कुछ गंभीर विनाश का कारण हो सकता है। विश्व ओजोन दिवस लोगों के बीच बड़ा मंच प्रदान करता है ताकि उन्हें जागरूक कर सके। यह सही समय है और हमें ओजोन परत को बचाए रखने के लिए अपने सर्वश्रेष्ठ प्रयासों को अवश्य जारी रखना चाहिए।